नजर हो चुकी है सन्यासी

ॠष्यमूक पर बैठे बैठे हमने सारी उमर गँवा दी
किन्तु न आया राह भटक भी, इस पथ पर कोई वनवासी

अपनी परछाईं से भी हम
रहे प्रताड़ित थे हतभागे
आतुर थे इक दिवस समय ये
करवट कोई लेकर जागे
तने शीश पर के वितान के
अँधियारे को पी ले कोई
और दिशा की देहरी चूमें
आकर कभी रश्मियाँ खोई

दस्तक से छिल चुकी हथेली में रेखाओं को तलाशते
अब तो कुशा कमंडल लेकर, नजर हो चुकी है सन्यासी

बारह खानों में घर अपना
बना बैठ रह गये सितारे
था अभिमान बड़ा गुरुओं को
करते सभी समन्वय हारे
जो मध्यम में रहे पिसे वह
दशा न बदली पल भर को भी
उठे हाथ थक गये, थामने
बढ़ा न कोई हो सहयोगी

उलझे समीकरण प्रश्नों को और जटिल करते जाते हैं
कोई हल संभावित होगा, आशा भी न बची जरा सी

नयनों की फुलवारी में बस
पौधे उगे नागफ़नियों के
रिश्ते जितने जुड़े बहारों से
सारे हैं दुश्मनियों के
चन्दन हुइ न देह, लिपटते
रहे किन्तु आ आकर विषधर
नीलबदन हो गये, मिला जो
जीवन का वह रस पी पीकर

आशाओं का लुटा चन्द्रमा, अभिलाषा की सूखी नदिया
अँगनाई में पांव पसारे, बैठी बस घनघोर उदासी

11 comments:

मैथिली गुप्त said...

राकेश जी, अत्यन्त भावपूर्ण अभिव्यक्ति है

अनूप शुक्ल said...

बहुत खूब!

Udan Tashtari said...

हम आज बस यह कह्ते हैं-वाह, बहुत खूब!!!

Anonymous said...

ॠष्यमूक पर बैठे बैठे हमने सारी उमर गँवा दी
किन्तु न आया राह भटक भी, इस पथ पर कोई वनवासी

मैं अपनी ओर से क्या लिखूँ?

Mohinder56 said...

सुन्दर भावपूर्ण रचना है राकेश जी

Divine India said...

व्यथा भी कही है ऐसी की सुध दे गया मन में आकर…
लगा जैसे कोई वह बात कही और नहीं भी कही लिखकर…
दृष्टि तो अनोखी है आपकी जो सजलता से दिखाती है रास्ते अपनी…।

Dr.Bhawna Kunwar said...

चन्दन हुइ न देह, लिपटते
रहे किन्तु आ आकर विषधर
नीलबदन हो गये, मिला जो
जीवन का वह रस पी पीकर

बहुत सुन्दर लिखा है राकेश जी। बहुत-बहुत बधाई। ये पंक्तियाँ बहुत पसन्द आईं।

राजीव रंजन प्रसाद said...

राकेश बहुत ही सुन्दर रचना है। ये पंक्तियाँ विशेषरूप से पसन्द आईं:

नयनों की फुलवारी में बस
पौधे उगे नागफ़नियों के
रिश्ते जितने जुड़े बहारों से
सारे हैं दुश्मनियों के
चन्दन हुइ न देह, लिपटते
रहे किन्तु आ आकर विषधर
नीलबदन हो गये, मिला जो
जीवन का वह रस पी पीकर

आशाओं का लुटा चन्द्रमा, अभिलाषा की सूखी नदिया
अँगनाई में पांव पसारे, बैठी बस घनघोर उदासी

*** राजीव रंजन प्रसाद्

सुनीता शानू said...

बहुत सुंदर रचना है राकेश जी...विशेष कर..
दस्तक से छिल चुकी हथेली में रेखाओं को तलाशते
अब तो कुशा कमंडल लेकर, नजर हो चुकी है सन्यासी
बहुत-बहुत बधाई आप बहुत गहरा लिखते है...
सुनीता(शानू)

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

kathya aur shilp donon hee staron par bahut hee umda rachana hai bhai.
Isht Deo Sankrityaayan

महावीर said...

आपको 'हिंदी ब्लॉग-युग के जय शंकर प्रसाद' कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी।

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