जो अनुत्तरित रहा अभी तक, तुमने फिर वह प्रश्न किया है
अब मैं उत्तर की तलाश में निशि दिन प्रश्न बना फिरता हूँ
क्या है उचित और अबुचित क्या, फ़िक्र किये बिन देखे सपने
सपने लेकिन सपने ही थे, निमिष मात्र भी हुए न अपने
दिवा स्वप्न की उम्र न पल भर, बनने से ही पूर्व बिगड़ते
धुंधले सभी, नयन पाटल पर किसी चित्र में पाये न ढलने
आँखों के मरुथल को अब तो आदत हुई शुष्क रहने की
आँसू कोई तिरे न, इससे पलक झपकते भी डरता हूँ
दीपक की अभिशापित लौ में पिघल गईं मेरी संध्यायें
आवारा गलियों में भटकीं चन्दा वाली सभी निशायें
पूजा में झुलसे यौवन के बनजारे यायावर पग को
मंज़िल का पथ दिखलाने में अब तक असफ़ल रहीं दिशायें
कुंभकार के चाक रखे हैं मेरे दिवस मॄत्तिका जैसे
जैसे कोई अंगूठे चाहें, वैसे शिल्पों में गढ़ता हूँ
भरते हुए शून्य अंतर में छलना खनका रही चूड़ियाँ
और बढ़ाती हुई भावनाओं से मन के मध्य दूरियाँ
सम्बन्धों की रीती गठरी रह रह याद दिला जाती है
किस पूँजी की बातें करती थीं बचपन में बड़ी बूढ़ियाँ
अस्ताचल के सिन्धु तीर पर खड़ा देख ढलते सूरज को
लौट सकेगा क्या कल फिर यह, रह रह कर सोचा करता हूँ
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
शिल्पकारों का सपना संजीवित हुआ एक ही मूर्त्ति में ज्यों संवरने लगा चित्रकारों का हर रंग छू कूचियां, एक ही चित्र में ज्यों निखरने लगा फागुनी ...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
2 comments:
अस्ताचल के सिन्धु तीर पर खड़ा देख ढलते सूरज को
लौट सकेगा क्या कल फिर यह, रह रह कर सोचा करता हूँ
--पूरी रवना ही बहुत खूबसूरत है. वाह, बधाई!!
आँखों के मरुथल को अब तो आदत हुई शुष्क रहने की
आँसू कोई तिरे न, इससे पलक झपकते भी डरता हूँ
बहुत खूब राकेश जी बहुत खूब । बधाई स्वीकारें।
Post a Comment