रागिनी उल्लास के रह रह सुमन चुनने लगी है
रात ने जो बाँसुरी छेड़ी सुबह सुनने लगी है
प्रीत होकर मलयजी अब स्वप्न करती है सुनहरे
यामिनी-गंधा कली देती निरंतर द्वार फेरे
हर दिशा उमगी हुई है आस के अंकुर उपजते
और अंकित कर बहारों को हवा के साथ चलते
फिर बनी तारा चकोरी चाँद का दर्पण उठा कर
नयन में अपने रुपहरी स्वप्न फिर बुनने लगी है
पाटलों पर ले रही अँगड़ाइयाँ अब ओस आकर
रश्मियों को चूमती है स्वर्ण निर्झर में नहा कर
पाखियों के पंख से उड़ते हुए झोंके हवा के
झर रहे हैं पेड़ की शाखाओं से वे गुनगुनाते
आरती में गूँजती सारंगियों की तान लेकर
मुस्कुराहट की गली से धुन नई उठने लगी है
बिछ रही हैं पंथ में दरियां नये आमंत्रणों की
वाटिकाओं ने मधुप के साथ जो भेजे कणों की
टेरती है गुनगुनी सी धूप बासंती बहारें
झील को दर्पण बना कर रूप को अपने निहारें
उंगलियाँ थामे किसी ॠतुगंध वाली भूमिका की
यह शिशिर की पालकी अब द्वार से उठने लगी है.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...
6 comments:
क्या गीत है भाई! हम तो आपकी कल्पना शीलता के बारे में सोच रहे हैं। कहां-कहां से लाते हैं ऐसे बिम्ब-बिछ रही हैं पंथ में दरियां नये आमंत्रणों की
वाटिकाओं ने मधुप के साथ जो भेजे कणों की
टेरती है गुनगुनी सी धूप बासंती बहारें
झील को दर्पण बना कर रूप को अपने निहारें
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं राकेश जी। बडा अच्छा वर्णन किया है साधुवाद।
पाटलों पर ले रही अँगड़ाइयाँ अब ओस आकर
रश्मियों को चूमती है स्वर्ण निर्झर में नहा कर
पाखियों के पंख से उड़ते हुए झोंके हवा के
झर रहे हैं पेड़ की शाखाओं से वे गुनगुनाते
बहुत खुबसूरत!!
आपकी काव्य प्रतिभा अनूठी है. शब्द ही नहीं मिलते, जिनसे इनकी सही तारीफ की जा सके. बस, वाह वाह करके रह जाते हैं. :)
आपकी कविता का वाचन मुझे प्रकृति की सैर समान आन्नद पहुंचाता है...
शब्दों का चयन व उनको माला में पिरोने की कला आप को खूब आती है
'उंगलियाँ थामे किसी ॠतुगंध वाली भूमिका की
यह शिशिर की पालकी अब द्वार से उठने लगी है.
कविता पढ़ कर लगा कि बसंत आ गया है, वरना आज सीमेंट के जंगलों में ऋतु परिवर्तन का भान ही नहीं होता। बहुत सुंदर कविता है।
अतिसुंदर.... राकेश जी जितना मैनें कविता की विविधता को जाना है, कविता में प्रकृति का वर्णन सबसे कठिन और सामान्य रूप से अस्वाभाविक काम है, वैसे भी साहित्य जगत में प्रकृति के कवि के रूप में बहुत कम लोग ही जाने जाते है, लेकिन जिन्होंने भी प्रकृति को लेकर सृजन किया है वो अद्भुत है. आपने आधुनिक कविता में प्रकृति को लेकर जो ये बांसुरी की तान छेड़ी है उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं. बहुत ही सुंदर कविता है.
Post a Comment