ये जो गली मोहल्ले में हैं बदमिजाज की चन्द हवायें
आओ उनको कहें रँगें वे, अब होली के रंगों में
शब्दों के जो तीर बींधते इक दूजे को सीने में
उनको फूल बना बरसायें , अब फ़ागुनी उमंगों में
उड़ने दो गुलाल रंगों में रँगें अबीरों के बादल
थाप ढोल की घुलती जाये झूम झूम कर चंगों में
गलियों से गलियों का नाता, कब दीवारों से टूटा
किसको हासिल कभी हुआ कुछ, चौराहों के दंगों में
ये कपोत जो उड़े गगन पर आज, शहादत देते हैं
हमने उमर गुजारी अपनी, धार मापते खंगों में
काबे में हो या हो फिर वह गिरजे की दहलीजों का
नजर नजर में फ़र्क भले हो, फ़र्क नहीं है संगों में
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नव वर्ष २०२४
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4 comments:
होली के इस मौके पर यह आह्वान बहुत बढ़िया रहा. शायद लोग समझें और उमंगों के इस पर्व पर रंगों में सरोबार हो नयी राह लें. आपको और सभी को होली की बहुत बहुत मुबारकबाद. :)
राकेश जी,
सर्वप्रथम आपको होली की ढेरों बधाइयाँ!!!
कविता तो उत्कृष्ट है ही होली के रंगों की
छटा भी उभर कर फिज़ाओं में फैल रही है…।
होली से अभी चंद दिन दूर होकर भी अनछुआ
छुआ लगने लगा है…धन्यवाद!!!
कल मैं आपके प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयत्न
करूँगा…!!!
आपको कुँअर परिवार की ओर से होली की ढ़ेर सारी शुभकामनायें !!!
होली पर आपने बहुत अच्छा संदेश दिया है काश !ऐसा हो जाये, तो तब होगी असली होली तो, बहुत अच्छा!!
होली की शुभकामनाएँ !
इसके लिए तो काश भगवान या हर इनसान तथास्तु ही कह देता तो अच्छा रहता ।
घुघूती बासूती
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