देता रहा

अपने सिरहाने के पत्तों को हवा देता रहा
अपनी उरियानी को शोलों की कबा देता रहा

आयेंगी इक दिन बहारें, पाल कर ऐसा भरम
जलजलों को अपने घर का रास्ता देता रहा

भीड़ में बिछुड़ा हुआ फिर भीड़ में मिल जायेगा
नाउम्मीदी के शहर में भी सदा देता रहा

जो मेरी अँगनाई से नजरें बचा कर मुड़ गये
मैं उन्हीं अब्रों को सावन की दुआ देता रहा

गुम न हो जाये मेरी पहचान इस सैलाब में
शेर लिख कर अपने होने का पता देता रहा

दौर में खामोशियों के चुप न हो जाये कहीं
मैं फ़न-ए-इज़हार को रंगे-नवा देता रहा

6 comments:

भारत भूषण तिवारी said...

कविता में सोचने वाले व्यक्ति को सलाह देने की गुस्ताखी कर रहा हूँ. माफ़ी चाहता हूँ!

गुम न हो जाये मेरी पहचान इस सैलाब में
शेर लिख कर अपने होने का पता देता रहा

के बदले

गुम न हो जाये मेरी पहचान इस सैलाब में
शेर कह कर कर अपने होने का पता देता रहा

किया जाए तो कैसा रहेगा?

भारत भूषण तिवारी said...

क्षमा चाहता हूँ! शे'र में गलती रह गई. सही शे'र नीचे दे रहा हूँ.

गुम न हो जाये मेरी पहचान इस सैलाब में
शेर कह कर अपने होने का पता देता रहा

रवि रतलामी said...

बढ़िया ग़ज़ल है.

सुभानअल्लाह!

राकेश खंडेलवाल said...

भारत जी
शेर कहता, जो अगर होता कोई भी सामने
इसलिये लिख अपने होने का पता देता रहा

Anonymous said...

Great site lots of usefull infomation here.
»

Unknown said...

Ghazal bhe kahte hain janab? Kya baat hai!! Kuchh sher vakai achche ban pade hain.
Tiwari sahab ne jo likha hai, theek hee lagta hai ... ab maan bhee jaaeeye kavi ji :)

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