कल्याण हो
मान्यतायें बिखरती रही रात दिन
हम करीने से उनको लगाते रहे
औ' झुलसती हुई संस्कॄति को उठा
देह पर घिस के चन्दन लगाते रहे
अस्मिता खो गई एक परछाईं में
गूँज सारे स्वरों की रही मौन हो
अजनबी अक्षरों से किया शब्द ने
प्रश्न, ये तो बताओ कि तुम कौन हो
आज बैसाखियों ने रची साजिशें
पंगु हो मूल भाषा सहारा तके
जो भविष्यत का आधार समझे गये
रह गये हाथ बांधे खड़े वे ठगे
रेत पर से छिटकती हुई रश्मि के
दायरे चाँदनी को छुपाते रहे
बदला युग, आततायी बदलते रहे
त्रुटि परिष्कार लेकिन नहीं हो सका
सोमनाथों के खुलते नहीं नेत्र हैं
जानते, किन्तु स्वीकार हो न सका
ढूँढ़ते सर्वदा इक शिखंडी मिले
है न साहस कभी आ सकें सामने
कर शिरोधार्य हर त्रासदी, कह रहे
ये ही किस्मत में शायद लिखा राम ने
चाहते जनमेजय हों बिना यत्न के
कोशिशों में समय को गँवाते रहे
अपनी जड़ से कटा एक पत्ता उड़ा
आस बादल सी अपने हॄदय में लिये
नापने नभ के विस्तार की ठान कर,
पंख टूटे हुए बाँह में भर लिये
पतझड़ों के थपेड़ों में उलझा हुआ
न इधर का रहा न उधर का रहा
शाख से फिर जुड़े साध मन में लिये
दर बदर ठोकरें खाता गिरता रहा
और इतिहास के पॄष्ठ से आ निकल
चित्र कुछ, व्यंग से मुस्कुराते रहे
प्रीत यों तो लपेटे थी भुजपाश में
प्रीत की आँख में प्रीत थी पर नहीं
चन्द ,मजबूरियाँ हाथ थी थामती
चूमती जिस तरह से पगों को जमीं
उंगलियों से लिपटती हुई उंगलियां
कीकरों से लतायें ज्यों लिपटी हुई
और विश्वास के सात पग की कसम
हो धराशायी राहों में बिखरी हुईं
शीर्ष वेदी पे आचार्य बैठे हुए
पुत्र कल्याण हो गुनगुनाते रहे
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2 comments:
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