आप- संपूर्ण प्रस्तुति

प्रीत मेरी शिराओं में बहती रही शिंजिनी की तरह झनझनाये हुए
छेड़ता मैं रहा नित नई रागिनी बाँसुरी को अधर पर लगाये हुए
कल्पना की लिये तूलिका आज तक एक ही चित्र में रंग भरता रहा
मैने देखा तुम्हें लेते अंगड़ाईयाँ दूधिया चांदनी में नहाये हुए
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मुस्कुराने लगीं रश्मियाँ भोर की क्षण दुपहरी के श्रन्गार करने लगे
झूमने लग पडीं जूही चंपाकली रंगमय गुलमोहर हो दहकने लगे
यूँ लगा फिर बसन्ती नहारें हुईं इन्द्रधनुषी हुईं सारी अँगनाईयाँ
रंग हाथों की मेंहदी के, जब आपके द्वार की अल्पनाओं में उतरने लगे
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आपके ख्याल हर पल मेरे साथ थे सोच में मेरी गहरे समाये हुए
मेरी नजरों में जो थे सँवरते रहे चित्र थे आपके वे बनाये हुए
साँझ शनिवार,श्रन्गार की मेज पर भोर रविवार को लेते अँगडाइयाँ
औ' बनाते रसोई मे खाना कभी अपना आँचल कमर में लगाये हुए
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.चित्र आँखों में मेरी बनाते रहे याद के प्रष्ठ कुछ फ़डफ़शाते हुए
रंग ऊदे, हरे,जामनी कत्थई भित्तिचित्रों से मन को सजाते हुए
मेरी पलकों के कोरों पे अटका हुअ चित्र है एक उस साँझ का प्रियतमे
दोनों हाथॊं में पानी लिये अर्घ्य का चौथ के चन्द्रमा पर चढाते हुए
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उम्र सारी है बीती, लगा, आज तक बस हथेली पे सरसों जमाते हुए
हम निराशा की चादर लपेटे रहे दस्तकें खंडहर पर लगाते हुए
हमने राहें भी वे ही सजाईं सदा जो न जाती, न आती कहीं से यहाँ
गुत्थियों में नक्षत्रों की उलझे रहे कुंडली पंडितों को दिखाते हुए
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खनकती पायलों की ताल की सौगन्ध है तुमसे
स्वरों की लहरियों के राग का अनुबन्ध है तुमसे
तुम्हारे ध्यान में डूबा हुआ हूँ इस कदर प्रियतम
मेरे पिछले जनम का भी कोई सम्बन्ध है तुमसे
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आपके पाँव को चूमने के लिये, राह पथ में नजरिया बिछायी रही
बाँसुरी आपके होंठ को चूमने , कुंज में रास पल पल रचाती रही
लहरें देते हुए दस्तकें थक गईं, आप आये न यमुना के तट पर कभी
और सूनी प्रतीक्षा खडी साँझ में, एक दीपक को रह रह जलाती रही.
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आपके ले के संदेश छत पर मेरी, कुछ पखेरू सुबह शाम आते रहे
साज सब आपकी तान को थाम कर, एक ही राग को गुनगुनाते रहे
द्वैत- अद्वैत, चेतन- अचेतन सभी आपकी द्रष्टि से बिंध बंधे रह गये
आपके ख्याल दीपक दिवाली के बन, मन की मावस को पूनम बनाते रहे.
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आप आये नहीं, पथ प्रतीक्षित रहे, वर्ष मौसम बने आते जाते रहे
हम नयन में मिलन के सपन आँज कर रात की सेज पर कसमसाते रहे
राग भी हैं वही, तान भी है वही, बाँसुरी के मगर सुर बदलने लगे
सीप था मन बना, स्वाति के मेघ पर इस गगन से नजर को बचाते रहे
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आप आये तो पग चूम कर राह की धूल, सिन्दूर बन मुस्कुराने लगी
मावसी थे डगर, कुछ हुआ यूँ असर, बन के दीपावली जगमगाने लगी
आपके केश छू मरुथली इक पवन, संदली गंध लेकर बहकने लगी
आप आये तो आँगन की सरगोशियाँ, बन के कोयल गज़ल गुनगुनाने लगीं
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कामना लेके अँगड़ाई कहती रही, चूम लूँ आपकी चंद अँगड़ाइयाँ
स्वप्न्म के चित्र बनते रहे कैनवस पर सजाते रहे मेरी तन्हाइयाँ
अपने भुजपाश में आपको बाँधकर, कल्पना चढ़ के स्यन्दन विचरती रही
और छाने लगीं मन के आकाश पर, संदली देह-यष्टि की परछाइयाँ
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केसमसाती हुई मन की वीरानगी ढूँढ़ती भीड़ में कोई तन्हा मिले
वादियों में गुलाबों की महकी हुई, चाहती है कोई कैक्टस भी खिले
राग,खुशबू,बहारें,मिलन,प्रेम अब दिल को बहला नहीं पा रहे इसलिये
एक इच्छा यही बलवती हो रही, अब जुड़ें दर्द के कुछ नये सिलसिले
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आपने इस नजर से निहारा मुझे, बज उठीं हैं शिराओं में शहनाईयाँ
अल्पनाओं के जेवर पहनने लगीं, गुनगुनाते हुए मेरी अँगनाइयाँ
आपकी चूनरी का सिरा चूम कर पतझड़ी शाख पर फूल खिलने लगे
बन अजन्ता की मूरत सँवरने लगीं भित्तिचित्रों में अब मेरी तन्हाइयाँ
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भोर की पालकी बैठ कर जिस तरह, इक सुनहरी किरण पूर्व में आ गई
सुन के आवाज़ इक मोर की पेड़ से, श्यामवर्णी घटा नभ में लहरा गई
जिस तरह सुरमई ओढ़नी ओढ़ कर साँझ आई प्रतीची की देहरी सजी,
चाँदनी रात को पाँव में बाँध कर, याद तेरी मुझे आज फिर आ गई
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आपने इस नजर से निहारा मुझे, बज उठीं हैं शिराओं में शहनाईयाँ
अल्पनाओं के जेवर पहनने लगीं, गुनगुनाते हुए मेरी अँगनाइयाँ
आपकी चूनरी का सिरा चूम कर पतझड़ी शाख पर फूल खिलने लगे
बन अजन्ता की मूरत सँवरने लगीं भित्तिचित्रों में अब मेरी तन्हाइयाँ
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आप मुस्काये ऐसा लगा चाँद से है बरसने लगी मोतियों की लड़ी
सामने आके दर्पण के जलने लगी, जैसे दीपवली की कोई फुलझड़ी
हीरकनियों से छलकी हुई दोपहर,,नौन की वादियों में थिरकने लगी
रोशनी की किरण इक लजाती हुई, जैसे बिल्लौर की पालकी हो चढ़ी
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जाते जाते ठिठक कर मुड़े आप औ' देखा कनखी से मुझको लजाते हुए
दाँत से होंठ अपना दबा आपने कहना चाहा था कुछ बुदबुदाते हुए
वक्त का वह निमिष कैद मैने किया स्वर्ण कर अपनी यादों के इतिहास में
अब बिताता हूँ दिन रात अपने सदा, आपके शब्द सरगम में गाते हुए
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भोर से साँझ तक मेरे दिन रात में आपके चित्र लगते रहे हैं गले
मेरे हर इक कदम से जुड़े हैं हुए, आपकी याद के अनगिनत काफ़िले
आपसे दूर पल भर न बीता मेरा, मेरी धड़कन बँधी आपकी ताल से
आपकी सिर्फ़ परछाईं हूँ मीत मैं, सैकड़ों जन्म से हैं यही सिलसिले
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गुलमोहर, मोतिया चंपा जूहीकली, कुछ पलाशों के थे, कुछ थे रितुराज के
कुछ कमल के थे,थे हरर्सिंगारों के कुछ,माँग लाया था कुछ रंग कचनार से
रंग धनक से लिये,रंग ऊषा के थे, साँझ की ओढ़नी से लिये थे सभी
रंग आये नहीं काम कुछ भी मेरे, पड़ गये फीके सब, सामने आपके
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तुमको देखा तो ये चाँदनी ने कहा, रूप ऐसा तो देखा नहीं आज तक
बोली आवाज़ सुनकर के सरगम,कभी गुनगुनाई नहीं इस तरह आज तक
पाँव को चूमकर ये धरा ने कहा क्यों न ऐसे सुकोमल सुमन हो सके
केश देखे, घटा सावनी कह उठी, इस तरह वो न लहरा सकी आज तक
मुस्कुराईं जो तुम वाटिकायें खिलीं, अंश लेकर तुम्हारा बनी पूर्णिमा
तुमने पलकें उठा कर जो देखा जरा, संवरे सातों तभी झूम कर आसमां
प्यार करता हूँ तुमसे कि सिन्दूर से करती दुल्हन कोई ओ कलासाधिके
मेरा चेतन अचेतन हरैक सोच अब ओ सुनयने तुम्हारी ही धुन में रमा.
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मेरे मानस की इन वीथियों में कई, चित्र हैं आपके जगमगाये हुए
ज़िन्दगी के हैं जीवंत पल ये सभी, कैनवस पर उतर कर जो आये हुए
चाय की प्यालियाँ, अलसी अँगड़ाईयाँ, ढ़ूँढ़ते शर्ट या टाँकते इक बटन
देखा बस के लिये भी खड़े आपको पर्स,खाने का डिब्बा उठाये हुए
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मन के कागज़ पे बिखरे जो सीमाओं में,रंग न थे, मगर रंग थे आपके
बनके धड़कन जो सीने में बसते रहे,मीत शायद वे पदचिन्ह थे आपके
जो हैं आवारा भटके निकल गेह से आँसुओं की तरह वो मेरे ख्याल थे
और रंगते रहे रात दिन जो मुझे, कुछ नहीं और बस रंग थे आपके
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देख पाया है जिनको ज़माना नहीं. रंग थे मीत वे बस तुम्हारे लिये
रंग क्या मेरे तन मन का कण कण बना मेरे सर्वेश केवल तुम्हारे लिये
सारे रंगों को आओ मिलायें, उगे प्रीत के जगमगाती हुई रोशनी
रंग फिर आयेंगे द्वार पर चल स्वयं, रंग ले साथ में बस तुम्हारे लिये
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आपके आगमन की प्रतीक्षा लिये, चान्दनी बन के शबनम टपकती रही
रात की ओढ़नी जुगनुओं से भरी दॄष्टि के नभ पे रह रह चमकती रही
मेरे आँगन के पीपल पे बैठे हुए, गुनगुनाती रही एक कजरी हवा
नींद पाजेब बाँधे हुए स्वप्न की, मेरे सिरहाने आकर मचलती रही
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मेरी अँगनाई में मुस्कुराने लगे, वे सितारे जो अब तक रहे दूर के
दूज के ईद के, चौदहवीं के सभी चाँद थे अंश बस आपके नूर के
ज़िन्दगी रागिनी की कलाई पकड़, एक मल्हार को गुनगुनाने लगी
आपकी उंगलियाँ छेड़ने लग पड़ीं तार जब से मेरे दिल के सन्तूर के.
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आप की याद आई मुझे इस तरह जैसे शबनम हो फूलों पे गिरने लगी
मन में बजती हुई जलतरंगों पे ज्यों एक कागज़ की कश्ती हो तिरने लगी
चैत की मखमली धूप को चूमने, कोई आवारा सी बदली चली आई हो
याकि अंगड़ाई लेती हुइ इक कली, गंधस्नात: हो कर निखरने लगी
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चांद बैठा रहा खिड़कियों के परे, नीम की शाख पर अपनी कोहनी टिका
नैन के दर्पणों पे था परदा पड़ा, बिम्ब कोई नहीं देख अपना सका
एक अलसाई अंगड़ाई सोती रही, ओढ़ कर लहरिया मेघ की सावनी
देख पाया नहीं स्वप्न, सपना कोई, नींद के द्वार दस्तक लगाता थका
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छंद रहता है जैसे मेरे गीत में, तुम खयालों में मेरे कलासाधिके
राग बन कर हॄदय-बाँसुरी में बसीं, मन-कन्हाई के संग में बनी राधिके
दामिनी साथ जैसे है घनश्याम के, सीप सागर की गहराईयों में बसा
साँस की संगिनी, धड़कनों की ध्वने, संग तुम हो मेरे अंत के आदि के
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गीत मेरे अधर पर मचलते रहे, कुछ विरह के रहे, कुछ थे श्रंगार के
कुछ में थीं इश्क की दास्तानें छुपीं,और कुछ थे अलौकिक किसी प्यार के
कुछ में थी कल्पना, कुछ में थी भावना और कुछ में थी शब्दों की दीवानगी
किन्तु ऐसा न संवरा अभी तक कोई, रंग जिसमें हों रिश्तों के व्यवहार के.
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आपने अपना घूँघट उठाया जरा, चाँदनी अपनी नजरें चुराने लगी
गुनगुनाने लगी मेरी अंगनाईयां भित्तिचित्रों में भी जान आने लगी
गंध में फिर नहाने लगे गुलमोहर रूप की धूप ऐसे बिखरने लगी
आईने में चमकते हुए बिम्ब को देखकर दोपहर भी लजाने लगी
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सावनी मेघ की पालकी पर चढ़ी एक बिजली गगन में जो लहराई है
रोशनी की किरन आपके कान की बालियों से छिटक कर चली आई है
कोयलों की कुहुक, टेर इक मोर की, या पपीहे की आवाज़ जो है लगी
आपके पांव की पैंजनी आज फिर वादियों में खनकती चली आई है.
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था गणित और इतिहास-भूगोल सब, औ' पुरातत्व विज्ञान भी पास था
भौतिकी भी रसायन भी और जीव के शास्त्र का मुझको संपूर्ण अहसास था
अंक, तकनीक के आँकड़ों में उलझ ध्यान जब जब किया केन्द्रित ओ प्रिये
थीं इबारत किताबों में जितनी लिखीं, नाम बन कर मिली वे मुझे आपका
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तूलिका आई हाथों में जब भी मेरे, कैनवस पर बना चित्र बस आपका
लेखनी जब भी कागज़ पे इक पग चली, नाम लिखती गई एक बस आपका
चूड़ियों की खनक, पायलों की थिरक और पनघट से गागर है बतियाई जब
तान पर जल तरंगों सा बजता रहा मीत जो नाम है एक बस आपका
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कनखियों से निहारा मुझे आपने
राह के मोड़ से एक पल के लिये
मनकामेश्वर के आँगन में जलने लगे
कामना के कई जगमगाते दिये
स्वप्न की क्यारियों में बहारें उगीं
गंध सौगंध की गुनगुनाने लगी
आस की प्यास बढ़ने लगी है मेरी
आपके साथ के जलकलश के लिये
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आप पहलू में थे फिर भी जाने मुझे क्यूँ लगा आप हैं पास मेरे नहीं
थे उजाले ही बिखरे हुए हर तरफ़, और दिखते नहीं थे अन्धेरे कहीं
फूल थे बाग में नभ में काली घटा, और थी बाँसुरी गुनगुनाती हुई
फिर भी संशय के अंदेशे पलते रहे,बन न जायें निशा, ये सवेरे कहीं.
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आप नजदीक मेरे हुए इस तरह, मेरा अस्तित्व भी आप में खो गया
स्वप्न निकला मेरी आँख की कोर से और जा आपके नैन में सो गया
मेरा चेतन अचेतन हुआ आपका, साँस का धड़कनों का समन्वय हुआ
मेरा अधिकार मुझ पर न कुछ भी रहा,जो भी था आज वह आपका हो गया
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आप की प्रीत ने होके चंदन मुझे इस तरह से छुआ मैं महकने लगा
एक सँवरे हुए स्वप्न का गुलमोहर, फिर ओपलाशों सरीखा दहकने लगा
गंध में डूब मधुमास की इक छुअन मेरे पहलू में आ गुनगुनाने लगी
करके बासंती अंबर के विस्तार को मन पखेरू मेरा अब चहकने लगा
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तुम्हारा नाम क्योंकर लूँ, मेरी पहचान हो तुम तो
कलम मेरी तुम्ही तो हो, मेरी कविता तुम्ही से है
लिखा जो आज तक मैने , सभी तो जानते हैं ये
मेरे शब्दों में जो भी है, वो संरचना तुम्ही से है
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मेरी हर अर्चना, आराधना विश्वास तुम ही हो
घनाच्छादित, घिरा जो प्यास पर, आकाश तुम ही हो
मेरी हर चेतना हर कल्पना हर शब्द तुमसे है
मेरे गीतों के प्राणों में बसी हर सांस तुम ही हो
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आपके पन्थ की प्रीत पायें कभी, आस लेकर कदम लड़खड़ाते रहे
आपके रूप का गीत बन जायेंगे, सोचकर शब्द होठों पे आते रहे
आपके कुन्तलों में सजेंगे कभी, एक गजरे की महकों में डूबे हुए
फूल आशाओं के इसलिये रात दिन अपने आँगन में कलियाँ खिलाते रहे
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मैं खड़ा हूँ युगों से प्रतीक्षा लिये, एक दिन आप इस ओर आ जायेंगे
मेरे भुजपाश की वादियों के सपन एक दिन मूर्तियों में बदल जायेंगे
कामनाओं के गलहार को चूमकर पैंजनी तोड़िया और कँगना सभी
आपकी प्रीत का पाके सान्निध्य पल, अपने अस्तित्व का अर्थ पा जायेंगे
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बोला कागा मेरी छत पे आके सुबह, आपके पाँव लगता उठे इस तरफ़
ओढ़ कर चूनरी. फूल की पाँख्रुरी से सजी मुस्कुराने लगी है सड़क
शाख पर मौलश्री की चहकने लगी एक बुलबुल मुरादें लिये गीत की
द्वार पर लग पड़ीं रंगने रांगोलियाँ, देहरी पर नई आ गई है चमक
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रूप है चाँद सा, रूप है सूर्य सा रूप तारों सा है झिलमिलाता हुआ
भोर की आरती सा खनकता हुआ और कचनार जैसे लजाता हुआ
आपका रूप है चन्दनी गंध सा जो हवाओं के संग में बहकती रही
रूप की धूप से आपकी जो सजा मेरा हर दिन हुआ जगमगाता हुआ.
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.भोर का जो सितारा गगन पर टँगा आपकी ओढ़नी से था छिटका हुआ
पूर्व में था क्षितिज, आपके मुख से ले रंग ऊषा के चेहरे में भरता हुआ
आपके स्वर से जागी हुई घंटियाँ, मंगला मंदिरों में बजाती हुईं
सॄष्टि का एक दिन और फिर आपकी प्रेरणा से लगा है उभरता हुआ.
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आपके पग को छूकर के सूनी डगर आपकी पायलों सी खनकने लगी
आपकी नथ के गौहर को छू रश्मियं भोर की रंग अंबर में भरने लगीं
आपके स्वर से ले रागिनी, गूँजने लग पड़ी है प्रभाती यहाँ गांव में
आपकी उठती पलकों से जागी हुई ज़िन्दगी की सुबह नव संवरने लगी
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आपकी प्रीत में डूब महकी हुई, झुटपुटी साँझ की मेरी तन्हाईयाँ
स्वप्न बूटे बनाती रहीं नैन में आपकी गुनगुनाती सी परछाईयाँ
आपकी साँस की बाँसुरी थाम कर आपके कुंतलों की सघन छाँह में
रास कालिन्दी तट बन रचाती रहीं खनखनाते हुए मेरी अँगनाईयाँ
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आपके गीत गाता रहा उम्र भर, और कुछ भी था मुझको गवारा नहीं
नैन के पाटलों पर सिवा आपके कोई भी चित्र मैने संवारा नहीं
किन्तु मन की किसी तह में सुलगी हुई एक मीठी शिकायत अभी शेष है
होंठ पर गीत खुद ही मचलने लगें , आपने मुझको ऐसे निहारा नहीं
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जब से त्रिवली में अटका है जा आपकी यूँ लगा है कि मन जैसे पगला गया
एक साड़ी का, बादल, किनारा बना जो घटा बन सुधाओं को बरसा गया
लेते अँगड़ाई जो हाथ उठते गिरे, तो लगा सैंकड़ों हैं भँवर बन गये
जितनी कोशिश उबरने की करता रहा, उतनी गहराईयों में ये धंसता गया
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मुस्कुराती हुई चाँदनी की कसम, आप मुस्काये तो खिल; गई चाँदनी
रागिनी ने कहा गुनगुनाते हुए, आप बोले तो स्वर पा सकी रागिनी
संदली हो गईं है हवा आपके संदली तन का पाकर परस गंधमय
आपके कुन्तलों से मिली प्रेरणा तब ही हो पाई है ये घटा सावनी.
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रूप है चाँद सा, रूप है सूर्य सा रूप तारों सा है झिलमिलाता हुआ
भोर की आरती सा खनकता हुआ और कचनार जैसे लजाता हुआ
आपका रूप है चन्दनी गंध सा जो हवाओं के संग में बहकती रही
रूप की धूप से आपकी जो सजा मेरा हर दिन हुआ जगमगाता हुआ.
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दीप जलते रहे हैं प्रतीक्षा लिये, आप आयें तो सज आरती में सकें
थरथराती रही फूल की पाँखुरी, आप छू लें तो वे देव पर चढ़ सकें
शिव के केशों में उलझी रही जान्हवी, आप भागीरथी में बदल दें उसे
शब्द छंदों में सिमटे हुए रह गये आपके छू अधर वे स्तुति बन सकें
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आपके छू अलक्तक रंगे ये चरण, देहरियाँ अल्पनाओं से सजने लगीं
आपके कुनतलों ने ली अँगड़ाई तो है घटा वादियों में बरसने लगी
आपकी पायलों की खनक से बंधी पालकी आ बहारों की उतरी गली
आपके आरिजों से मिली लालिमा, रजनी संध्या के रंग में सँवरने लगी
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साँझ सिन्दूर में डूब कर जो खिली, आपकी याद के चित्र बनने लगे
रात की ओड़्हनी में पिरोये हुए बिम्ब नयनों में आकर उतरने लगे
टूट कर गगन से सितारे गिरे, आपके कान की बालियाँ थी हिली
आपके केश से एक मोती गिरा, प्रीतमय हो जलद सब बरसने लगे
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5 comments:

Satish Saxena said...

बहुत लंबा ख़त लिखा है आपने, और खूबसूरत गीत बन गया
मगर कौन समझ पता है कवि की वेदना ?
शुभकामनायें

Shar said...

iska kya arth hai "स्यन्दन"?

Shar said...

"चांद बैठा रहा खिड़कियों के परे, नीम की शाख पर अपनी कोहनी टिका"

Shar said...

नथ के "गौहर" ka kya arth hai

Shar said...

ise kahte hain shingaar ras!

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...