गंध की परछाईयों के बन के अनुचर रह गये हम
अब नही संभव रहा हम राह अपनी ढूंढ़ पायें
धूप के जिन पनघटों से, भोर भर लाते कलसिया
आज उसकी राह में हैं उग रहे जंगल कँटीले
सांझ की जो पालकी दिन के कहारों ने उठाई
बींध कर उसको गये हैं दंश विधना के नुकीले
रात की काली दुशाला में हज़ारों छेद हैं अब
कोई भी दर्जी नहीं है, हम रफ़ू किससे करायें
मान कर प्रतिमान जिनको, ज़िन्दगी हमने बिताई
मूल्य बदले हैं समय की करवटों के साथ उनके
सींचते संबंध के वटवॄक्ष जिनको हम रहे थे
वे सहारों के लिये अब ढूँढ़ते हैं स्वयं तिनके
शब्द का जो कोष संचित कर रखा था, लुट गया है
रिक्त हैं कुछ पॄष्ठ बाकी, क्या पढ़ें हम क्या सुनायें
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2 comments:
is kavita ko nobel prize :)
"भोर भर लाते कलसिया"
ah! anand aa gaya !
kya chitran hai !
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