जहाँ फ़िसलते हुए बचे थे पांव उम्र के
उन मोड़ों पर
जमी हुई परतों में से अब प्रतिबिम्बित होती परछाईं
जहाँ मचलते गुलमोहर ने एक दिवस
अनुरागी होकर
सौंपी थी प्राची को अपने संचय की पूरी
अरुणाई
उसी मोड़ से गये समेटे कुछ अनचीन्हे से
भावों को
मैं अपनी एकाकी संध्याओं में नित
टाँका करता हूँ
अग्निलपट सिन्दूर चूनरी ,मंत्र और कदली स्तंभों ने
जिस समवेत व्यूह रचना के नये नियम के
खाके खींचे
उससे जनित कौशलों के अनुभव ने पथ को
चिह्नित कर कर
जहाँ जहाँ विश्रान्ति रुकी थी वहीं
वहीं पर संचय सींचे
निर्निमेष हो वही निमिष अब ताका करते मुझे निरन्तर
और खोजने उनमें उत्तर मैं उनको ताका
करता हूँ
षोडस सोमवार के व्रत ने दिये पालकी को
सोलह पग
था तुलसी चौरे का पूजन ,गौरी मन्दिर का आराधन
खिंची हाथ की रेखाओंका लिखा हुआ था
घटित वहाँ पर
जबकि चुनरिया पर, आंखों में आ आ कर उतरा था सावन
हो तो गया जिसे होना था, संभव नहीं, नहीं हो
पाता
उस अतीत के वातायन में, मैं अब भी
झांका करता हूँ
तय कर चुका अकल्पित दूरी कालचक्र भी
चलते चल्ते
जहाँ आ गया पीछे का कुछ दृश्य नहीं
पड़ता दिखलाई
फ़िर भी असन्तुष्ट इस मन की ज़िद है
वापिस लौटें कुछ पल
वहाँ, जहाँ पर धानी कोई किरण एक पल थी लहराई
इस स्थल से अब उस अमराई की राहों को
समय पी गया
मैं फ़िर भी तलाश थामे पथ की सिकता
फ़ाँका करता हूँ
4 comments:
बड़ी ही सुन्दर पंक्तियाँ, स्मृतियों की छाँह में।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन युद्ध की शुरुआत - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ ..
जबरदस्त!!
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