मन की कस्तूरिया

 मन की कस्तूरियाँ गंध को घोलती

झालती में हवा को उड़ाने लगी
कोई संदेश ऋतु का मिला तो नहीं
वाटिका में कली मुस्कुराने लगी 

आतुरा हो गईं पुष्प की पाटालें 
देव के पाँव जाकर तनिक चूम लें 
आस की कोंपलें प्रस्फुटित हो रही
हार बन ईश के वक्ष पर झूम लें
साथ रोली ओ’ अक्षत के पूजा करें
धूप दीपक की ज्योति जगाते हर
अपने जीवन समर्पित करें मूर्ति को
आस्था में निपट आत्ममुग्धा  हुए 

तनमें संचार करती धुनें, बांसुरी
रोम में, पोर में झनझनाने लगीं

कंठ से गूंजती आरती के सबद
घंटियों के स्वरों से जुड़े ताल में
नृत्य करती हुई वर्तिकाएँ रही
इक सजे वंदना के लिए थाल में 
धूम्र बन कर उड़ी हैं अगरबत्तियाँ 
व्योम में  बादलों से लगा होड़  सी
तेज होतीं हुई यज्ञ कुंडेल लपट 
लेते अंगड़ाई जैसे सहज हो गई 

आहुति आँजती मंत्रके बोल आ
कर सजे थरथराते हुए 

 चल पड़ी होके बसंतीया इक घाटा
नृत्य करती हुई व्योम के गाँव से 
पट्टियों की गली से गुजर आ गयी 
करती विश्राम कुछ पीपली छाँह में
झील में अपने प्रात बिंब को देखकर
रूप पर अपने ख़ुद ही लजाते हुए
छेड़ती जलतर्गों की कोमल धुनें
खोल अपने आधार कंपकंपाती हुए


हर दिशा में बजी बीन आ नारदी
देव कन्याएँ आ गीत गाने लगीं 

राकेश खंडेलवाल
अगस्त 2023 




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