जहाँ महकती रजनीगंधा

जहाँ महकती रजनीगंधा 

 रजनीगंधा जहां महकती, दूर हुई है वे 

यादों के विषधड़ आ आ करते हैं दंशों से घायल 


नागफनी के पौधे उग कर घ्रेर रहे हैं मन की सीमा
विषमय एकाकीपन करता है धड़कन की गाती को भी धीमा
सन्नाटे में साँझ सकारे और अलसती दोपहरी में
सीख चुका है जीवन अब यह सुधा मान कर आंसू पीना

सुधियों की  पुस्तक के पन्ने आज हुए हैं सारे धूमिल
सिर्फ़ एक आभास सरीखा लहराता रेशम का आँचल

है अजीब ये सारी दुनिया, देख किसी की पीड़ा हंसती
भूली टूटे आइने से भी रूपसीं की छवि  दमकती 
मेघों के आडम्बर करते पूरे नभ को भी आवछादित
चीर कुहासों के घेरे को चंद्र किरण की विभा चमकती

दुनिया भर के चाहतों पर बिंब खींचे हैं छलनाओं के
अधरों पर वेदना मौन है, नयनों में में पीड़ा काजल 

अस्थिर है ईमान, बिक रही चौराहों पर नैतिकताएँ 
प्रतिबंधों से घिरी हुई है सत्य प्रेम की सब सीमाएँ 
नजरों के तीरों से बींध कर, मौन रही पाँवों की पायल
रिसती हुई पीर के पल ही द्वारा को आकर खड़काएँ 

मन है खुला अवंतिका के  आगे जैसा,   वैसा पीछे भी
अधरों पर जलती है तृष्णा जलती है और हाथ में रीती छागल

राकेश खंडेलवाल 
८ कँवरियों २०२३ 










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