मृग तृष्णाओं केजंगल में
इक मरीचिका के कोहरे मेंलिपटे हुए बिताई हमने
हर सुबहा हर शाम
हाँ ये तो था ज्ञात हमारी
दृष्टि भरम में डूबी
फिर भी सपनों में उलझाता
जीवन की है खूबी
उगती रही प्यास होंठों पर
बढ़ते पग के साथ
दिवास्वप्न शिल्पित होने का
पला एक विश्वास
उठ यथार्थ के धरातलों से
बहे हवाओं की लहरों पर
पतझर की नंगी शाख़ों के
तले किया विश्राम
झूठे दम्भों, छलनाओं का
शून्य रहा अंतर में
नैतिकता का अर्थ तलाशा
विध्वंसित जर्जर में
मिलते विष को पीकर अपने
मन को था बहलाया
जिसने दंश दिए, उसका भी
है आभार चुकाया
क्रूर समय का खड़ा महाजन
निज बहियाँ ले द्वार
साँसों की मोहरों के ऋण का
चुकता किया छदाम
रात उजाले की चंदनिया
मिली नित्य बेस्वाद
सपनों से जो भरी अंजुरी
रिस जाती हर बार
दो घूँट चाँदनी के आकर
होंठों तक, फ़िस्कल गए
हम टूटी नौकायें लेकर
सागर में निकल गए
टूटी प्रतिमा के खंडहर सा
छिन्न भिन्न इतिहास
पंगु हुए इस वर्तमान पर
अब लिखना है नाम
राकेश खंडेलवाल
फ़रवरी २०२१
3 comments:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 02 मार्च 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत सुंदर सृजन।
अभिनव शैली।
बहुत सुन्दर सृजन।
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