शब्द है कृशकाय
अपने कक्ष की एकाकियत में
पक्ष पूरा एक
फिर एकांत में घिर रह गया
बंद हैं वातायनों के
पट, न दस्तक दें हवाएँ
हर दिशा बिखरा रही
अवरोध के संग वर्जनाएँ
यौवन को दोषों की
कथाएँ सुनाने में
जीवन का तारतम्य
शून्य में घिर रह गया
मोड़ सूने फिर हुए
पगडंडियों की यात्रा के
शब्द औंधे मुँह पड़े
यों हाथ छूटे मात्रा के
कंठ से गूंजा स्वर
होंठों की देहरी पर
कुछ कहे बिन
आज फिर चुप रह गया
बिंदु पर रेखाओं के
अब दिग्भ्रमित हो पाँव ठहरे
धुँध में डूबे हुये सब
परिचयों के आज चेहरे
धड़कन से साँसों को
अनुपाती करने में
पास का योग भी
घट कर ही रह गया
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