धागा उलझ उलझ रह जाए

 

​कटी फटी  सपनों की चादर को जब भी चाहा तुरपाऊँ
धागा उलझ उलझ रह  जाए टाँका लगने से पहले ही

सूरज ने समेट कर रख ली जब अपनी किरणो की गठरी
और निशा के पग की पायल कहीं दूर लग पड़ी खनकने
मन  की अकुलाहट घर वापिस जाते पाखी के पर थामे
खिड़की के पल्लों को पकड़े दूर क्षितिज पर लगी अटकने 

दृष्टि खींचती है आकृतियाँ खुले गगन पर सूरमा लेकर 
धुआँ धुआँ होकर रह  जातीं खाका बनने से पहले ही 

शनैः  शनैः  होती विलीन जब राहों की ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियां 
जुगनू आकर ढली सांझ की दहलीजों पर दीप  जलाते 
सुधि के संदूकों के ताले जो बरसों से बंद पड़े थे 
अनायास ही बिन कुंजी के एक एक कर खुलते जाते 

चाहा जब जब उन्हें  खोल कर एक बार फिर से संगवाऊं 
छीर छीर होकर रह जाते, तह के खुलने से पहले ही 

कमरे की दीवारों पर आ प्रश्न बुना करते हैं जाले 
किन्तु थरथराकर  रह  जाते, संभावित सारे ही उत्तर 
अंकगणित के समीकरण को बीजगणित से सुलझाने  की 
कोशिश में मिटने लगते हैं लिखे हुए सारे ही अक्षर 

बिछी ज़िंदगी की चौसर पर रही सुनिश्चित हार सदा ही
मोहरे  सारे  पिट जाते हैं, पासा गिरने से पहले ही 

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