कुछ पलाश रूपभरी सतरंगी आँच से
एक गात उभर रहा सामने नयन के आ
जब भी निहारा है प्रिज़्म वाले काँच से
शतरूपे दृष्टि के वितान पर दिशाओं में
चित्र एक तेरा ही हर घड़ी उभरता है
थरथराती पाँखुरों से फिसलता हुआ तुहिन
द्रवित हुआ लगता है कुहसाइ भोर में
सरसराहटें झरी जो चूनरी के कोरों से
चूमती हैं कलियों को मधुपों के शोर में
मधुलके प्रभावित है मधुवन समूचा ही
पवन भी यहाँ आ के लड़खड़ाता चलता है
गूंजता है अलगोजा आप ही हवाओं में
जल तरंग छेड़ती है नव धुने सितार पर
बादलों के झुंड नृत्य करते हैं व्योम में
फगुनाहट। छाती है गाती मल्हार पर
साधिके कलाओं का एक अंश पा तेरा
पुष्प धन्व सतरंगे रंग में संवरता है
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