अनहोनी कुछ हुई
उषा ने लिख दिया शब्द इक
नील गगन के कोरे पट पर
प्राची का अध्याय खुला इक
पीत रक्त से वर्ण सजा कर
आँख मसलते हुये भोर ने
जल तरंग से हाथ पखारे
कुछ बूँदें उड़ चली हवा में
खुले देव मंदिर के दवारे
लगी गूंजने शंखों की ध्वनि
दीपशिखा में ज्योति भर गई
आकर फूलों की पंखुरियाँ
प्रतिमा पग पर आप चढ़ गईं
मलय गंध की साड़ी पहने
इठला कर चल दी पुरवाई
अनहोनी कुछ हुई लजा कर
अपने में सिकुड़ी अरुणाई
एक वृक्ष के वातायन से
नन्हे पाखी ने नभ देखा
और उड़ चला पंख पसारे
पढ़ लेने को दिन का लेखा
पीछे पीछे चले धूप के
सोनहली रंगों के धागे
पगडंडी से राजपथों तक
पदचापों के स्वर फिर जागे
चढ़ते हुए दिवस के संग संग
जीवन की गति तीव्र हो गई
पता नहीं चल पाया किस पल
धूप उतरते हुए ढल गयी
संध्या के साजों पर थिरकी
चँदियाई रजनी की पायल
अनहोनी यूँ हुई आज का
दिन, सहसा हो बैठा है कल
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