जीवन के पथ पर उभरे हों पल पल पर अवरोध निरंतर
साँसों में भी घुल जाए अंधियारा ऐसा लगता हो जब
आशा की आख़िरी किरण भी डूब चुकी हो अस्ताचल में
अटक अटक कर चले धड़कनी की गति लगने लगता हो जब
उस पल मन की गहरी परतों में संचित विश्वास जगाकर
अहम ब्रह्म के नाद स्वरों को एक बार फिर से दुहरा कर
उठो जूझते हुए विषमता के घिर कर उमड़े बादल से
संकल्पी का पंथ सदा ही है है प्रशस्त बतलाए दिवाकर
ओ राही यह विदित रहे दृढ़ निइश्चय भरी एकनिष्ठा ही
करती। विइवश देव सलिला को धरती पर आकर बहन को
ठिठकें कदम उठे हर पग पर हो अवरुद्ध कंठ में ही स्वर
और भाव असमर्थ हुए हों देते हुए शब्द को वाणी
नयन तलाशें बिछी हुई पगडंडी पर उभरी आहट को
नई दिशायें बतलाने को आती हो प्रतिमा कल्याणी।
अरे पथिक यह मत भूलो तुम,सभी अपेक्षाओं की परिणति
दिवास्वप्न जैसी होती है पल पल पर बन कर ढहने को
असमंजस को त्याग साथ लेकर पाथेय चलो यायावर
हर दिन नाव गंतव्य बुलाता तुमको निकट सुनो, बिश्वासी
अपने। मन के आइने से जमी हुई यह धूल बुहारी
मिल जाएँगी नई सफलता जिसकी छायाएँ अविनाशी
गति ही रही शाश्वत संरचनाओं के इस आदि पर्व से
गति का। स्वागत करे समय ले साथ विजयश्री के गहने को
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