खिड़की के पल्लों पर लटका
एक अधूरा सी अलसाहट
दहलीज़ें सूनी है सारी
पौली में न कोई आहट
ख़ालीपन निशब्द घरों में
अब आकर के पसर गया है
ऐसा लगता कोई हादसा
अभी यहाँ से गुजर गया है
और प्रश्न आँजे आँखो में
निर्निमेष हम ताक रहे है
आशंका के घने कुहासे
वातायन से झांक रहे हैं
राजमार्ग गलियाँ चौपालें
देखें जिधर, उधर सूना है
एकाकीपन का ये कोहरा
लगता पहले से दूना है
हवा छिपी जाकर कोटर में
क्यों, ये पूछे एक गिलहरी
अड़ी हुई अंगद के पग सी
काटे कटती नहीं दुपहरी
अम्बर की मटमैली चादर
में बन गए कई छेदों पर
बादल के टुकड़े खुद को ही
ला ला करके टाँक रहे हैं
नया वेश रख कर सावन का
आया है फिर जेठ पलट कर
लगता है सुइयाँ घड़ियों की
लौटी पीछे, आगे बढ कर
दीवारों के कैलेंडर का
पृष्ठ न बदला महीनो बीते
फैले हाथ आस को लेकर
पर फिर से सिमटे हैं रीते
मरुथल के ढूहों पर रुक कर
पुरवाई के विवश झकोरे
पल पल उड़ती हुई धूल को
मुट्ठी भर भर फाँक रहे हैं
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