कल जहाँ से लौट कर

 कल जहाँ से लौट कर हम आ गए सब कुछ भुला कर
आज फिर से याद की वे पुस्तकें खुलने लगी हैं 

फिर लगी है तैरने इस साँझ में धुन बाँसुरी की 
भग्न मंदिर में जला कर रख गया है दीप कोई 
पनघटोंकी राह पर झंकारती है पैंजनी फिर 
पीपलों की छाँह में फिर जागती चौपाल सोई

कल जहाँ से लौट कर हम आ गए, सूनी  कुटी वह
गूँजते शहनाई स्वर के साथ फिर सजने लगी है 

भोर में नदिय किनारे सूर्य वंदन आज फिर से 
और फिर तैरे प्रभाती गीत कुछ बहती हवा में 
गुरुकुलों का शंखवादन जो अपरिचित हो गया था 
खींचता नूतन सिरे से चंचलता मन आस्था में 

कल जहाँ पर बह रही थी रात दिन पछुआ निरंतर 
आज फिर पूरबाइ की मद्दम गति बहने लगी है 

कल जहाँ से लौट आए गीत लेकर के निराशा 
मंच पर बैठे विदूषक, हाथ में कासा सम्भाले
आज फिर से छा रही हैं संस्कृतियाँ मेघदूती 
काव्य में में आने लगे, साकेत दिनकर के हवाले 

कल जहाँ पर राग -सरगम मुँह ढक कर सो गए थे
आज रंगीनियाँ वही पर निशिदिवस बजने लगी है  

1 comment:

Meena sharma said...

समीर सर की उड़नतश्तरी उड़ाते उड़ाते यहाँ ले आई। अभी कुछ ही गीत पढ़े हैं। मंत्रमुग्ध कर लेने वाले गीत हैं। सादर।

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