ओ मेरे आवारा मन चल धूप से उठ के दूर कहीं पर
इसमें शेष उजास नहीं है केवल है अंधियारा बाक़ी
हर इक बार उगा है सूरज नए नए आश्वासन लेकर
ओढ़ सकेंगी नई सुबह में, सिर पर कलियाँ शाल सुनहरी
चीर कुहासे और धुंध को को, सरसेगा मतवाला मौसम
खोलेगी नवीन सम्वत् के द्वार गुनगुनी हुई दुपहरी
खोलेगी नवीन सम्वत् के द्वार गुनगुनी हुई दुपहरी
लेकिन जागी नई भोर जब, आँख मसलते ले अँगड़ाई
उसमें केवल तिमिर घुला था, नहीं सुनहरा रंग ज़रा भी
निश्चय तो था हुआ व्योम से अंशुमान जब धूप बिखेरे
हर इक कोना रहे प्रकाशित इक समान ही हर कण कण में
लेकिन चल कर आसमान से धूप रुक गई कँगूरों पर
एक किरण भी उतर न चमकी कोहरे में लिपटे आँगन में
रहे ताकते चित्र धूप के जो बरसों से गये दिखाए
किंतु न बंधी गठरिया अब तक एक बार जो खुली निशा की
नहीं आज की तथाकथित यह धूप नहीं गुण रूप धूप का
चन्दा के इकतरफा रुख सी, एक ओर ही रही प्रकाशित
चढ़ बैठी बादल की छत पर नहीं उतरती आ गलियों में
इससे करना कोई अपेक्षा बिलकुल नहीं रहा सम्भावित
घुटती है आशाए तम से भरे हुये सीले तलघर में
कहें धूप से उठ के दूर चली जा चाहत नहीं प्रभा की
2 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 15/04/2019 की बुलेटिन, " १०० वीं जयंती पर भारतीय वायु सेना के मार्शल अर्जन सिंह जी को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 17अप्रैल 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
Post a Comment