फूट पड़े पतझड़ से

मौसम ने अंगड़ाई लेकर अपना रूप बदल डाला है
तुमने आज मीत लहराया जो अपना यह धानी आँचल 

फूट पड़े पतझड़ से सहसा गंधों के मदमाते झरने
जे मास में मरुभूमि में आकर के गदराया सावन
उगी करीलों की झाड़ी में सुरभित  पुष्पराज की कलियाँ 
सूखी  पड़ी नदी के तट पर  जैसे आ सरसा वृंदावन 

संदलबदने! रक्त अधर से बिखरी मृदमय स्मित की लड़ियाँ
उन्हें उठाने को आ पहुँचे धरती पर अम्बर से बादल 

जल तरंग ने छेड़ी सरगम होंठों पर रख कर बाँसुरिया
सोनजूही  ने गूँथी अपनी वेणी ले चम्पा और बेला
कचनारों की रंगत में आ घुली और कुछ हरी लाली 
सारंगी के सुर से चंगों  का बढ़ गया और गठमेला

कलसाधिके रंगे अलक्तक में पग उठे डगर पर ज्योही 
अस्ताचल  को जाता सूरज लौट पड़ा फिर से अरुणाचल 

उग आए पथ के चिह्नों में बल खाते नवरंग  धनक के
मनक़ामेश्वर मंदिर के सब भित्तिचित्र जीवंत हो गए 
तानसेन के आलापों से लगीं गूँजने सभी दिशायें
भग्न मंदिरों के प्रांगण  के सूनेपन रसवन्त हो गए 

शतरूपे कंगन की आरसि से प्रतिबिम्ब ज़रा जो छलके
लगी थिरकने धरा व्योम में बलखाती दामिनि की पायल 

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