कितनी बार जलाए

 
कितनी बार जलाए हमने अपनी आशाओं के दीपक 
सोचे बिना तिमिर का खुद ही हमने ओढ़ा हुआ आवरण 

कल की धूप बनाएगी अपने आँगन में रांगोली
इंद्रधनुष की बंदनवारें लटकेंगीं द्वारे पर आकर
आन बुहारेंगी गलियों को सावन की मदमस्त फुहारें
मलयानिल बाँहों में भरना चाहेगी हमको अकुलाकर 

कितनी बार आँजते आए हम यूँ दिवास्वप्न आँखों में
ज्ञात भले थादिन के सपनों का हो पाता नहीं संवरण

कितनी बार जलाए हमने धूप अगरबत्ती मंदिर में
अभिलाषित हो उठा धूम्र यह नील गगन तक जा पहुँचेगा 
ले आएगा अपने संग मेंकल्प वृक्ष की कुछ शाखाएँ
पारिजात की गंधों से तन का मन का आँगन महकेगा 

कितनी बार कल्पना को निर्बाध उड़ाया किये व्योम में
कर्मक्षेत्र के नियमों का तो कर न पाये कभी अनुसरण 

कितनी बार जलाए टूटे हुए स्वप्न आलाव बिठाकर
और सुबह के होते होते गुल दस्तों में पुनः सजाया
रहा विदित परिणति क्या होगी डाली से टूटे फूलों की 
फिर भी हमने भ्रम के झूलों में ख़ुद को हर बार झुलाया

कितनी बार हुई है खंडित अपनी आराधित प्रतिमाएँ
और सोचते अगले पल हो, इनमें आकर ईश अवतरण

राकेश खंडेलवाल








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