जीवन के पतझड़ में जर्जर सूखी दिन की शाखाओं पर
किसने आ मल्हार छेड़ दी औ अलगोजा बजा दिया है
मुड़ी बहारो की काँवरिया मीलो पहले ही
इ
स पथ से
एक एक कर पाँखुर पाँखुर बिखर चुके है फूल समूचे
बंजर क्यारी में आ लेता अंकुर कोई नहीं अंगड़ाई
और न आता कोई झोंका गंधों का साया भी छू
के
फिर
भी इक अनजान छुअन से धीरे से दस्तक दे कर के
इस मन के मरुथल को जैसे रस वृंदावन बना दिया है
सूखी शाखाओं की उंगली छोड़ चुकी है यहां लताएं
बस करील की परछाई ही शेष रही है इस उपवन में
उग आये हर एक दिशा में मरुथल के आभास घनेरे
एकाकीपन गहराता है पतझड़ आच्छादित जीवन में
फिर भी सुघर मोतियों जैसी उभरी कोमल पदचापों ने
गुंजित हो ज्यो कालिंदी तट को आँगन में बुला दिया है
ढलती हुई सांझ की देहरी पर अब दीप नहीं जलते है
भग्न हो चुके मंदिर में आ करता नहीं आरती कोई
अर्घ्य चढ़ाता कौन जा रहे अस्ताचल की और, सूर्य को
खर्च हो चुका कैलेण्डर कमरे में नहीं टांगता कोई
फिर भी आस कोंपलों ने मुस्काकर जीवन के पतझड़ में
जलती हुई दुपहरी को मदमाता सावन बना दिया
है
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