तुम तो बसी हुई सांसों में सहचर हो धड़कन की मेरी
शतरूपे फ़िर सपनों की पलकों पर किसे बिठाऊँ मैं
एक प्रतीक्षा पलक बिछाये रहती है लम्बी राहों पर
चरण पुष्प की खिली पांखुरी हौले से आकर के छू ले
कनक तुली काया से झरते गन्धों के झरने में भीगे
मादकता से ओत प्रोत झोंकों में लेते पैंगे झूले
गिरती हुई ओस सी पग की आहट के मद्दम सुर लेकर
राग तुम्हारा मिले तभी फिर गीत बना कर गाऊँ मैं
नभ में उड़ते पाखी लाते सन्देसे केवक वे ही जो
पाकर के आभास तुम्हारा अनायास ही संवर गये हैं
मेघदूत कलसी में भरकर ढुलकाता है सुधा कणों को
जोकि तुम्हारे कुन्तल की अलगनियों पर से बिखर गये हैं
तन की द्युतियाँ, मन की गतियाँ बन्दी होकर रहीं तुम्हारी
कलासाधिके , पृष्ठ खोल दो तो संभव पढ़ पाऊँ मैं
करवट लेकर आंख खोलती प्राची के आंगन में किरणें
और पखारें अपने मुख को ढलती हुई ज्योत्सनाओं में
उगता हैं तब चित्र तुम्हारा बिछे क्षितिज के कैनवास पर
साँझ आँजने लग जाती हैं , तब से मीत तुम्हारे सपने
इन्द्रधनुष के रंग तुम्हारे इक इंगित के अनुयायी है
बंधी हथेली तनिक खुले तो चित्र कोई रंग पाऊँ मैं
2 comments:
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
अद्भुत!!
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