पंक्ति बना कर शब्द अनगिनत होठों पर आ बस तो जाते
मन ये माने नहीं गीत हैं, सुर चाहे सज कर गाते हैं
सन्ध्या आ लिखने लगती है बीते दिन के इतिहासों को
दीप हजारों जल जाते हैं अर्जित पीड़ा की बाती के
अवरोघों के अवगुंठन में उलझ आह के सिसकी के सुर
सन्नाटे की प्रतिध्वनियों के रह जाते हैं साथी बन के
सीढ़ी पर धर पांव उतरती रजनी के पग की आहट पा
सोई हुई पीर के पाखी फ़िर से पंख फ़ड़फ़ड़ाते हैं
फ़ैली हुई हथेली असफ़ल रह जाती कुछ संचय कर ले
खुलती नहीं दृष्टि द्वारे पर लटकी आगल और साँकलें
अभिलाषा के वातायन पर जड़ी हुईं अनगिनत सलाखें
कर देती हैं पूर्ण असंभव नील गगन में जरा झाँक लें
खुली हवा की पगडंडी पर चलते हुए गंध के राही
कभी कभी तो जानबूझ कर अपनी गठरी खो जाते हैं
गीला करता आंजुरि को आ जब जब नव संकल्पों का जल
तब तब विधना की कलमों से रच जाते हैं नूतन अक्षर
आशाओं के चन्द्रमहल सब, सिन्धु तीर पर बालू वाले
एक घरोंदे जैसे पाकर परस लहर का रहे बिखर कर
उलझी हुई हाथ की रेखाओं से नक्षत्रों के रिश्ते
जोड़ घटाने, भाग गुणित करने पर सुलझ नहीं पाते हैं
1 comment:
बहुत सुन्दर. अद्भुत!!
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