अलसाई सांझ ओढ़ लेती इन दिनों नया ही इक घूँघट
झरते पत्तों में धीमे से बोता रागिनियाँ वंशीवट
अभिसारित अभिलाषायें ले कह उठता है शरदीला पल
ये रात कहाँ सोने को है
इक गीत कोई होने को है.
आता है दूर कहीं गिरती बर्फीली फुहियों का ये सुर
सीढ़ी से नीचे उतर रही, पुरबाई के पग के नूपुर
इनको लेकर के साथ चला आवारा मौसम का पटुवा
सरगम लगता पोने को है
इक गीत नया होने को है
दिन सिकुड़ा सकुचा सिमटा सा ,निशि यौवन की ले अंगड़ाई
शिंजिनियाँ घोल शिरा में दे, भुजपाशों की ये गरमाई
पुष्पित शर लिए खड़ा धन्वा , इक लक्ष्य भेद संधाने है
अब ध्यान भंग होने को है
इक गीत नया होने को है
चंदियाई गोटे का जोड़ा, पहने रजनी की नवल वधू
हाथों की मेहँदी के बूटे, महकाते संदलिया खुशबू
नजरें उठ्ती हैं बार बार वापिस आती हैं पथ को छू
आतुर अपने गौने को है
------------------फ़िर कलम किस तरह मौन रहे
इक नया गीत होने को है.
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