खोया है किस इंतजार में असमंजस में उलझ रहे मन
तू है नहीं शिला कोई भी जिस पर पड़ें चरण रज आकर
विश्वामित्री साधें लेकर तूने कितना अलख जगाया
अभिलाषा का दीप द्वार पर निशि वासर बिन थके जलाया
यज्ञ धूम्र ने पार कर लिया छोर सातवें नभ का जाकर
आस शिल्प को रहा सींचता, पल पल तूने नीर चढ़ाया
डोला नहीं किन्तु इन्द्रासन सुन कर अनुनय भरी पुकारें
आई नहीं मेनका कोई तुझ पर होने को न्यौछावर
अपने आप बदलती कब हैं खिंची हुई हाथों की रेखा
बैठा है किस इंतजार में, होगा नहीं कोई परिवर्तन
करना तुझको अनुष्ठान से आज असंभव को भी संभव
तेरे द्वारे आये चल कर खुद ब खुद जय का सिंहासन
लड़ कर ही अधिकार मिला करता, समझाया इतिहासों ने
थक जायेगा मीत कौरवी साधों को समझा समझा कर
अपनी तंद्रा तोड़ याद कर तू कितना सामर्थ्यवान है
तू निश्चय करता है, सागर आकर के कदमों में झुकता
तेरे विक्रम की गाथायें स्वर्णाक्षर में दीप्तिमयी हैं
महाकाल का रथ भी तेरा शौर्य देखने पल भर रुकता
नभ के सुमन सजाने को आ जायेंगे तेरी अँगनाई
उन्हें तोड़ने को संकल्पित ज्यों ही हो तू हाथ बढ़ाकर
1 comment:
Bahut badhiya
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