इतिहास का दूसरा पक्ष --मान लें -महल से निकलने के पश्चात सिद्धार्थ प्रेम के वशीभूत वापिस आये तो उस समय यशोधरा के मन की बात:-
लौट जाओ प्यार के संसार से सिद्धार्थ अब तुम
पग तुम्हारे बुद्ध बनने की दिशा में उठ गए हैं
जानती हूँ अब न रोकेंगे तुम्हें कुन्तल घनेरे
और चुम्बक बन न पायेन्गे अधर ये थरथाराते
भंगिमायें नैन की जो बीन्धती थी पुष्प शर बन
इक अदेखी रेख पर गिरने लगी हैं लड़कहडाते
लौट जाओ प्यार के संसार से तुम अब भ्रमित से
मोह के सब पाश ढीले आज पड़ने लग गये हैं
है विदित किलकारियाँ शिशु की नहीं बाधा बनेंगी
जिस डगर की डोर तुमने थाम ली यायावरी मन
इक अबोधी प्रश्नचिह्नित दृष्टि लौटेगी पलट कर
पार करने में हुई असमर्थ ओढ़े आज तुम तम
लौट जाओ प्यार के संसार से अब जोगिया तुम
छांव वाले वृक्ष के अब पात झरने लग गये हैं
ये समर्पण के लिये फ़ैली हुई दोनों भुजायें
उर्वशी की, मेनका-रतुइ से मिली प्रतिरूप काया
दूर हैं अब यष्टि की उत्तुंग त्रिवली श्रुंखलायें
ज़िन्दगी के पंथ से है दूर इनकी शांति छाया
भीरुता पूरित पलायन, दृष्टि में सन्यास मेरी
आज क्या है सत्य ? इस पर चिह्न लगने लग गये हैं
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एक और पक्ष
है असंभव मान लूँ मैं मीत यह बातें तुम्हारी
कह रहे तुम लौट जाओ प्यार के संसार से
मैं नयन में जो लिखी भाषा वही बस जानता हूँ
अर्थ जो होता अबोले शब्द का पहचानता हूँ
जो मधुप के औ अली के मध्य में खिचती रही है
उस अदेखे बन्ध की सामर्थ्य को मैं मानता हूँ
जानता हूँ इस डगर पर जीत होती हार से
किसलिए फिर लौट जाऊं प्यार के संसार से
यह नगर जिसमें सदा ही भाव के अंकुर पनपते
बस इसी की वादियों में देवता भू पर उतरते
इस नगर में घोर तप को भी तपस्वी त्यागते हैं
नर्तकी के सामने सम्राट भी हैं आन झुकते
यह नगर निर्मित नहीं है नियम के आधार पे
है असंभव लौट पाउन प्यार के संसार से
लौट भी जाऊं अगर , वापिस कहाँ पर जाऊंगा मैं
शांतिमय अनुभूतियाँ ये, किस जगह पर पाउँगा मैं
है तुम्हारे क्षेत्र में क्रंदन,रुदन औ पीर केवल
घिर उन्हीं के व्यूह में बस रह नहीं क्या जाऊंगा मैं
मधु=सदन को छोड़ कर लूँ क्या शयन अंगार पे
किसलिए फिर लौट जाऊं प्यार के संसार से
राकेश खंडेलवाल
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