आँखों के सूने मरुथल में घिरती नहीं कोई भी बदली
दूर क्षितिज तक बिखरा है बस, केवल शून्य भरा नीराजन
उगता हुआ दिवस प्रश्नों के भरे कटोरे ले आता है
आते नहीं किन्तु उत्तर के पाँव तनिक भी दहलोजों पर
घिरी कल्पना मन के पिंजरे में, रह रह कर उड़ना चाहे
पर होकर असमर्थ बिलखती है अपनी बढ़ती खीजों पर
जहां वाटिकाएँ रोपी थी रंग बिरंगे फूलों वाली
उन्हें हड़प कर बैठ गया है पतझर का स्वर्णिम सिंहासन
साहस छोड़ गया है दामन लड़ते हुए हताशाओं से
अपनी परछाईं से नजरें उठती नहीं एक पल को भी
यद्यपि ज्ञात परिस्थितियों पर नहीं नियंत्रण रहा किसी का
लेकिन ये मन मान रहा है जाने क्यों अपने को दोषी
कांप रही उंगलियां, तूलिका पर से ढीली पकड हो गई
कोरा पड़ा कैनवास सन्मुख , कैसे करें कोई चित्रांकन
घिरती हुई साँझ आकर के थोड़ा ढाढस दे जाती है
पीड़ा के सारे प्रहरों को निशा आएगी, पी जाएगी
ओस सुधा छिड़केगी उषा की गलियों में बरस ज्योत्स्ना
दिन की गागर सुख-खुशियों के पल ला ला कर छलकायेगी
उगा दिवस पर नए शस्त्र से सज्जित हो कर के आता है
करता है पीड़ाओं का फिर नए सिरे से वह अनुवादन
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