ओ अनुरागी ! आज नया यह पटल खुला जीवन पुस्तक का
इस पर इक अध्याय स्वयं ही तुमको अंकित करना होगा
साक्षी है इतिहास समय की गति से होड़ लगा जो चलता
सिर्फ उसी के कदमों को ही तो दुलराया है राहों ने
और उसी के मस्तक पर अभिषेक हुआ है रक्त तिलक का
उसको सहज सहेजा स्वर्णिम पृष्ठों ने अपनी बाँहों में
लगता है जो तितर बितर सा निश्चय बहती झंझाओं से
उसको अपने संकल्पों से कर में संचित करना होगा
खड़े हुए हैं यक्ष हजारों प्रश्न सजाये चौराहों पर
कुंजी से अपने विवेक की, उनकी गुत्थी सुलझानी है
गोला उलझे हुए सूत का जो लगता है एक तिलिस्मी
छोर पकड़ लो तब पाओगे, विधियां जानी पहचानी है
पथ चुनना तुमको अनुरागी, जहां प्रतीक्षित विजय श्री है
उसकी जयमाला से खुद को तुमको सज्जित करना होगा
नक्षत्रों की गतियां सारी बंधी हुई गुरुता के बल से
ज्ञानज्योति की ज्वालाओं को अपने अंतर में धधकाओ
सूरज चन्दा तारे सब ही केंद्र बना कर तुम्हें फिरेंगे
अम्बर आकर चूमेगा पग, तुम मन से आवाज़ उठाओ
मात पिता के आशीषों के साथ कामनाएं सब ही की
तुमको इनको पाँखुर कर कर पथ को रंजित करना होगा
3 comments:
अति सुदंर! आमीन!
गुरुजी, छोर और सूत ठीक कर लें :)
अनुरागी ! आज नया यह पटल खुला जीवन पुस्तक का
इस पर इक अध्याय स्वयं ही तुमको अंकित करना होगा
-जबरदस्त!!
ओ अनुरागी !
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