भोर चाहत के सुमन रोज़ खिला देती है
और संध्या में निखरती हैं पंखुरिया सारी
तेरे आशीष की बरखा की बरसती बूँदें
मेरे आँगन को बना देतीं गंध की क्यारी
ज़िंदगी दीप है बाती है आत्मा माना
किन्तु मैं फिर भी अँधेरे में भटक जाता हूँ
होंठ को शब्द दिए कंठ को स्वर सौंपा है
और ये ज्ञात नहीं मुझको मैं क्या गाता हूँ
तेरे इंगित की कड़ी जब भी जुडी है स्वर से
गीत आकर के स्वयं होंठ पे खिल जाते हैं
तेरे अनुग्रह की किरण छूती है सरगम को जब
अर्थ रागिनियों को कुछ और भी मिल जाते हैं
तेरे संकुल के बिना कुछ भी नहीं है संभव
तू तो तिनके को बनाता है शैल से भारी
तू ही चेतन है, चेतना है तू ही प्राणों में
बोल बोले हैं, अबोले हैं प्रार्थनाओं के
गन्ध का बन के मंत्र बसती है तू ही उनमें
फूल जितने भी सजे तेरी अर्चनाओं के
तेरा विस्तार अनत, सूक्ष्मतर अणु से है
हर चराचर में निहित एक तेरी परछाई
तू ही वाणी है, स्वर है और तू ही है भाषा
शब्द कोशों का सूत्र, तू ही तो अक्षर ढाई
प्राणदायक है सुधा का तू निरंतर निर्झर
प्यास ले प्यासा तू ही एक समन्दर खारी
मैं तुझे बाँध सकूं शब्द में,अक्षम हूँ मैं
तू है शब्दों से परे दूर हर इक भाषा के
भाव के एक ही पल में तू समाहित होती
हर तिमिर में तू जलाती है दीप आशा के
तेरी आराधनायें,साधनाएं,तेरी लगन
एक तुझसे ही शुरू होतीं तुझी पर रुकती
द्वैत,अद्वैत,निराकार या साक्षात सभी
कल्पना तेरे ही चरणों में पहुँच कर चुकती
तू रचयिता है,प्रणेता है,तू ही अंतिम है
तू हीतो है कि टिकी सृष्टि ये जिसपे सारी
No comments:
Post a Comment