दिनमानों के झरते विद्रुम

निगल चुकीं हैं गूंजे स्वर को भीड़ भरी वीरान वादियाँ 
परछाईं से टकरा टकरा लौटी खाली हाथ नजरिया 
 
जीवन की पतझरी हवा में संचित कोष हृदय के बिखरे 
दूर क्षितिज पर ही रुक जाते सावन के जो बादल उमड़े 
अंतरिक्ष का सूनापन रिस रिस भर देता है अँगनाई
 बंद हुए निशि की गठरी में आँखों के सब स्वप्न सुनहरे 
 
दृष्टि  चक्र के वातायन में कोई भी आकार न उभरे 
विधवा साँसों की तड़पन को चुप भोगे सुनसान डगरिया 
 
आभासों के आभासों से भी अब  परिचय निकले झूठे 
चिह्न दर्पणी स्मृतियों में जो अपने थे सारे ही रूठे 
किंवदंती की अनुयायी ह आस तोड  देती अपना दम 
इन हाथों में रेख नहीं वह जिससे बांध कर छेंके टूटे 
 
पैबन्दों की  बहुतायत ने रंगहीन    कर सौंपा हमको 
जब भी  हमने चाही  पल में फिर से हो शफ्फाक चदरिया 
 
अधरों पर आने से पहले शब्द हुए सारे स्वर में गम 
खामोशी की बंदी सरगम बैठी रह जाती है गुमसुम 
निशि वासर के प्रश्न अधूरे रह रह प्रश्न उठा लेते हैं
 उत्तर दे पाने में अक्षम दिनमानों के झरते विद्रुम 
 
मन ने लिखना चाहा कोरे पृष्ठों पर जब मंत्र वेद के 
खाण्डव वन तब बन जाती है जीवन की अशमनी नगरिया 

2 comments:

Udan Tashtari said...

निगल चुकीं हैं गूंजे स्वर को भीड़ भरी वीरान वादियाँ
परछाईं से टकरा टकरा लौटी खाली हाथ नजरिया
--बहुत सुन्दर!!

दिगम्बर नासवा said...

कितना सुन्दर गीत ... गुनगुनाया जा सके ..

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