पुरबाई का चुम्बन पाकर जैसे ही घूंघट खोला था
एक कली ने उपवन में, आ मधुपों की लग गईं कतारें
इससे पहले बूँद ओस की पाटळ चूमे कोई आकर
इससे पहले मन बहलाये कोयल कोई गीत सुनाकर
इसके पहले दर्पण में आ बादल कोई बिम्ब बनाये
इसके पहले शाखा पुलकित हो उसको कुछ पल दुलराकर
झंझा के झोंकों की लोलुप नज़रों ने बस शर बरसाए
उनसे बच कर गंधे आकर कैसे उसका रूप संवारें
जैसे ही घूंघट खोला था, उसे विषमताओं ने घेरा
लगा जन्म का वैरी जैसे, हर दिन आकर उगा सवेरा
क्यारी जिसने सींच सहेजा था नज़रों की नजर बचाकर
उसका भी व्यवहार विषमयी करने लगा समय का फेरा
उपवन के सारे गलियारे ढले स्वत: ही चक्रव्यूह में
उत्सुक नजरें आतुरता से अभिमन्यु का पंथ निहारें
यद्यपि संस्कृति ने सिखलाईं रीति वृत्ति की सब सीमायें
कहा, देव बसते उस स्थल पर जहाँ नारियाँ होती पूजित
कलियों का खिलना नदियों का बहना है अध्याय सृजन का
सर्जनकारी शक्ति सदा ही सर्वोपरि ,हर युग में वर्णित
रहे छद्मवेशी सारे ही यहाँ मंत्रण के प्रतिपालक
किस अगत्स्य के आश्रम के जा सागर में अब हाथ पखारें
1 comment:
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