खुली हथेली पर रह जाती
है सरसों ज्यों फ़िसल फ़िसल कर
स्वप्न फ़िसल कर रह जाते हैं
वैसे नयनों की ड्यौढ़ी चढ़
टूटे त्रिभुज विल्व पत्रों के
पूजाओं में चढ़ न पाते
बिखरे हुए शब्द छन्दों की
डोरी से वंचित रह जाते
ठोकर खाकर गिर जाता है
स्वर अधरों तक आते आते
कैसे गीत कोई फिर अपना
हम गा पाते, तुम्हें सुनाते
बही हवा की जंजीरों से
बंध कर नहीं बातियां जलतीं
उगी भोर में परछाईं कब
प्राची की देहरी पर बनती
रागिनियों ने कब बतलाऒ
टूटे हुए तार को थामा
तपी जेठ की दोपहरी में
घिरता नहीं गगन घन श्यामा
अवरोहों की गहन कंदरा
में जा भटक गई है वाणी
पता नहीं युग कितने बीतें
आरोहों तक आते आते
आतुर भाव उठा करता है
करवट लेकर छन्द पकड़ने
लेकिन बढ़ती हुई दूरियां
देती नहीं शब्द को ढलने
घुट कर रह जाता आंखों के
घेरे में सपनों का पाखी
मौन सांझ देखा करती है
दोपहरी की घनी उदासी
क्षितिज बदलता नहीं भोर हो
या घिर कर आयें संध्यायें
केवल घिर कर आये धुयें के
साये हैं रहते लहराते
फिर कैसे हम गीत सुनाते
2 comments:
गज़ब!!
नमस्कार भाई जी !
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है !!
Post a Comment