खटखटाता रहा द्वार इतने बरस
मैं, तुम्हारे ह्रदय का खुला ही नहीं
होंठ पर गीत बन कत्र मचल जाये जो
दॄष्टि का स्पर्श अब तक मिला वो नहीं
ढूँढता मैं रहा मेघ की छाँह को
इक मरुस्थल की सूनी डगर पर चला
नीर भरता रहा उग रही प्यास में
जोकि जलती हुई दोपहर से ढला
रेत के सिन्धु में से उमड़ती हुई
मैं लहर रात वासर गिने जा रहा
राह से कट चुके मोड़ पर मैं खड़ा
ये विदित है नहीं, आरहा ? जा रहा ?
सूर्य जब ढल गया तो निशा पी गई
रोशनी चाँद तारों से जितनी छनी
चाँदनी की किरन से संवर जाये जो
उस दिशा का पता तो मिला ही नहीं
मैं भटकता रहा हूँ तुम्हारे नयन
की घनी कालिमा में प्रिये उम्र भर
हूँ सुनाता रहा सांस के गान में
धड़कनों की लिखी पुस्तकें बाँच कर
बरगदी शाख से आस की डोरियां
नित लटकती रहीं हैं प्रतीक्षा लिये
दॄष्टि छलके नयन के सुधा कुम्भ से
पान कर के जिसे स्वप्न मरता, जिये
थी अपेक्षा सुलगती रही सांझ तक
फिर अंधेरा हुआ तो पलक झुक गई
पाटलों पर नयन के उगी याचना
रात से कोई सपना मिला ही नहीं
उंगलियाँ हो गईं लेखनी आप ही
एक ही नाम दिन रात लिखती रहीं
फिर कभी बन गईं रंगमय तूलिका
एक ही चित्र में रंग भरती रहीं
छैनियाँ बन गईं, शिल्प करती रहीं
एक प्रतिमा, तराशे शिलाखंड को
एक ही ध्येय से जुड़ समर्पित रहीं
चाहना न रही पल भी स्वच्छंद हो
था उलीचा ह्रदय का कलश दिन निशा
भावन्ना सिन्धु की तलहटी दिख गई
होंठ पर प्रतिफ़ली बिन्दु बन कर झरे
पल वही एक अब तक मिला ही नहीं
1 comment:
अद्वितीय!
अति सुन्दर ! मन में बस जाने वाला गीत!
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