लौट चुकी हैं प्रतिध्वनियाँ भी
शून्य क्षितिज से टकरा टकरा
और प्रतीक्षा की थाली के
दीप बुझ गये जलते जलते
गति का रथ इस पथ से गुजरा, चलते चलते दूर हो गया
चित्र नयन का दिवास्वप्न में ढल कर चकनाचूर हो गया
बिछी हुई पलकों की सिकता पर पदचिह्न उभर न पाये
और लगे आ आ कर घिरने तिमिर निराशा के कुहसाये
असफ़ल हुई निगाहें अपने
हाथों में रेखा तलाशते
धुंधली होते हुए मिट गईं
जो हाथों को मलते मलते
स्वस्ति चिह्न अंकित कर खोले मन की अंगनाई के द्वारे
लाभ और शभ दोनों पर थे फूल चढ़ाए सांझ सकारे
अगवानी की वन्दनावारें नित्य भोर के साथ सजाई
चौक पूर कर रंग भर दिए पीले श्वेत और अरुणाई
लेकिन सूनी पगडण्डी की मांग
रह गई फिर से सूनी
रंगहीन हो गई ह्रदय की
आस कुंवारी पलते पलते
था विश्वास, स्वाति, बूँदों को एक दिवस बरसा ही देगा
आराधन करते आराधक, आराधित को पा ही लेगा
बदल रहे मौसम के सँग में चल देगी पतझड़ की टोली
आयेगी बासन्ती चूनरिया को ओढ़े सतरंगी डोली
लेकिन आशाओं के तरुवर
शीश झुकाये खड़े रह गये
रीत गई क्षमता पराग की
बेमौसम के फ़लते फ़लते
एक बार फिर खिलीं नयन के पाटल पर स्वप्निल रेखायें
पल भर को ठिठकीं साँसों की देहरी पर उमड़ी झंझायें
एक बार फिर गूँजी नभ पर इक मयूर की मेघ पुकारें
लगा हो गई हैं संजीवित रूठ चुकी मन की मनुहारें
लेकिन यों मरीचिका दिखला
फिर से, विधना छली, छल गई
चारित्रिक आचरण बन चुका
उसका सपने छलते छलते
थकी आस्था करते करते दीप प्रज्ज्वलित नित्य आस के
रोपा करते दिन की क्यारी में पौधे प्रतिपल उजास के
घिरा घटाओं के परदे में रह जाता है छिपा दिवाकर
संध्या के आते गहराता लुटी हुई आसों का सागर .
विधना के हाथों में बंदी
कठपुतली के धागे नर्तित
अंतिम पल तक गतिमय रहना
पड़ता उसको चलते चलते
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