वो एक चुम्बन लगा दहकने

कपोल पर जो जड़ा था तुमने वो एक दिन गुलमोहर के नीचे
छुआ हवा की जो सिहरनों ने, वो एक चुम्बन लगा दहकने
 
हुए हैं बाहों की क्यारियों में परस हजारों वे अंकुरित अब
तुम्हारे भुजपाश ने दिए थे जो सांझ ढलते नदी किनारे
उन स्नेहसिकता पलों की धड़कन लगी बजाने है दिलरुबा इक
थे जिनमें भीगे हुए मिले थे ओ मीत उस दिन नयन तुम्हारे
 
उतरते सूरज की रश्मियों ने लिखा था जो कुछ वितान पर तब
वो लेख ढलता हुआ सुरों में हो गीत देखो लगा चहकने
 
लगीं हैं कमरे की खिडकियों पर मलय की गंधे वही उमड़ने
तुम्हारी साँसों की वीथियों में जो टहला करतीं निशा सवेरे
दृगों के दीपक जो प्रज्ज्वलित थे हुए मुहर स्वीकृति की पाकर
वे बनके सूरज जले हैं ऐसे हुए अपरिचित सभी अँधेरे
 
जो एक सम्मोहिनी समय ने दी डाल गति में विराम लेकर
वो आज आई फिर ऐसे घिर कर ये तन बदन है लगा बहकाने
 
वो तुलसी चौरे की दीप बाती, वे ज्योति दौने बही लहर के
मिले थे  हस्ताक्षरजिनको तमसे, लगे हैं रँगने नयन के पाटल
उषा की रंगत के चित्र आकर बिछाता है मेरी देहरी पर
दिवस के कर से फ़िसल के गिरता सा सुर्मई सांझ का यआँचल
 
जो शब्द के फूल खिल गये थे तुम्हारे होठों के मधु परस से
वे आज फिर से सुधी की मेरी आ वाटिका में लगे महकने

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर और भावभरी रचना।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

bahut sundar ......... GULMOHAR :)

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नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...