मन के भोजपत्र पर लिक्खे
यौवन की अँगड़ाई ने जो
मधुरिम पल, संध्या एकाकी
कहो कभी तो बाँची होगी
घिरती हुई रात की चूनर झिलमिल करती हुई विभा में
हो उन्मुक्त नयनों के पट पर, कहो झूम कर नाची होगी
सूरज के गतिक्रम में बँधकर
चलती हुई ज़िन्दगी ने कब
पढ़ीं पातियाँ जो लिख देती
है हर निशि में रजनी गंधा--
याकि ज्योत्सना की टहनी से
अनजानी इक डोर बाँध कर
पूरनमासी के आंगन में
झूला करता झूला चन्दा
कहो लहरिया ओढ़ प्रीत की
वयसन्धि की षोडस कलियाँ
डगमग डगमग होते पग को
एक बार तो साधी होगी
गंधों की बहकी चितवन में डूबी हुई कोई अनुभूति
कितनी बार सोचती होगी प्यास कभी तो आधी होगी
या इक पड़ते हुये बिम्ब को
निरख निरख अपनी धारा में
तट पर खड़े जुगनुओं से
जो करती हैं बातें पतवारें
निश्छल एक लहरती नौका
के हिंडोले की मृदु गतियाँ
हौले हौले छ्ड़ा करतीं
परछाईं के साथ फ़ुहारें
पार याद के परकोटे कर
अपनी अपने से मनुहारें
फिर नयनों के आगे आ कर
चित्रों मेम ढल जाती होगी
चंचल सुधियों की अँगड़ाई गुजर चुके इक वातायन में
अपने स्वर्णिम इतिहासों के अंक पुन: फ़िर जाँची होगी
1 comment:
अद्भुत पंक्तियाँ, कई बार पढ़ीं, मन नहीं भरा।
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