कल्पों की कल्पना रूप अपना देखा करती है
जिसमें, मीत तुम्हारे चन्दन तन की परछाई है
सुन्दरता शिल्पों में ढलती जिससे प्रेरित होकर
जगी भोर के साथ तुम्हारी पहली अँगड़ाई है
जिससे सीखा भ्रमरों ने गुंजन कर तान सुनाना
पुरबाई ने बह तरंग पर जल के साज बजाना
जिससे जागे मंदिर की आरति के मंगल स्वर
जिससे झंकृत हुये बादलों की उड़ान के पर
मीत तुम्हारे अधरों की कोरों से फ़िसली सी
सरगम के सुर बिखराती स्वर की शहनाई है
अंकित भाग्यभाल पर कविताओं की भाषा है
जिससे परिभाषित होती हर इक परिभाषा है
मोहित सकल विश्व को करती है इक ही चितवन
सम्मोहित हो जाता लख कर खुद ही सम्मोहन
जिसमें डूब कल्पना रचती गीत नये प्रतिपल
मीत तुम्हारे कजरे नयनों की कजराई है
उषा के कोमल अधरों पर है जिसकी मृदु छाया
जिस आभा में संध्या की दुल्हन का रूप लजाया
गुलमोहर दहके हैं जिसके अंश मात्र को छूकर
जवाकुसुम उग आते जिसको देख स्वयं ही भू पर
दिशा दिशा नर्तित हो जाती स्पर्श बिम्ब का पाकर
मीत! अलक्तक रँगे पगों से छिटकी अरुणाई है
1 comment:
शब्दों का अद्भुत चित्रांकन..पढ़कर चित्र स्वयं खिंच जाता है।
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