जिन प्रश्नों का उत्तर कोई मिला नहीं हैं कभी कहीं से
वही प्रश्न दस्तक देते हैं आज पुन: द्वारे पर आकर
किसने किसके लिये लगी थी कल के पट पर सांकल खोली
कौन खेलता गै हाथों की रेखाओं से आंख मिचौली
कहाँछुपे हैं इतिहासों में वर्णित स्वर्णमयी रजनी दिन
किधर वाटिकायें गूँजे है जिनमें प्रीत भरी बस बोली
यद्यपि ज्ञातन उत्तर का रथ मुडन सकेगा इन गलियों को
बार बार कर रहीं प्रतीक्षा आँखें मोड्क्ष गली के जाकर
क्या कारण था क्या कारण है परिवर्तन की नींद न टूटे
किसने खींचे राज पथों पर ही क्यों आ बहुरंगी बूते
भला किसलिए सावन चलता रहा पुराणी ही लीकों पर
कटते रहे एकलव्यों के ही क्यों कोई कहे अंगूठे
कब से नियमावलिया क्यों हम आँख मूड कर रहे अनुसरण
कोई भेद नहीं बतला पाया है यह हमको समझा कर
किये अनकिये प्रश्नों में ही दिवस निशा नित उलझे रहते .
क्यों विपरीत दिशाओं में ही गंधों वाले झोंके बहते
क्यों लुटती हैं विकच प्रसूनों की पांखुर ही वन उपवन में
क्यों कांटे भी नहीं सहायिकाओं पर जा कर सजाते रहते
प्रश्नाचिहं की झुकी कमर पर प्रश्नों का बोझा है भारी
आशा यही कोई उत्तर आ बोझ तनिक जाए हल्का कर
1 comment:
उत्तर की आशा जिनसे थी,
पूछ रहे हैं प्रश्न वही दृग।
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