भोर की अलगनी पे टँका रह गया
कल उगा था दिवस सांझ के गाँव में
रात फिर से सफ़र में रुकी रहगयी
गिनते गिनते जो छाले पड़े पाँव में
कल उगा था दिवस सांझ के गाँव में
रात फिर से सफ़र में रुकी रहगयी
गिनते गिनते जो छाले पड़े पाँव में
चांदनी ने प्रहर ताकते रह गए
उंगलियाँ थामने के लिए हाथ में
दृश्य की सब दिशाएँ बदल चल पडी
रुष्ट होते हुए बात ही बात में
नभ की मंदाकिनी के परे गा रही
एक नीहारिका लोरियां अनवरत
पर किसी और धुन पे थिरकता हुआ
आज को भूल कर दिन हुआ था विगत
3 comments:
आज आपका गीत देख तसल्ली हुई ! सादर प्रणाम!
बहुत बढ़िया...
बहुत सुन्दर..
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