ज़िंदगी में हैं हजारों एक तो पहले व्यथाएं
आपकी फिर बात सुन कर रोयें हम या मुस्कुराएँ
भावना के प्रकरणों की पूर्व निर्धारित समस्या
एक मन को छू रखें औ दूसरे से बच निकलते
एक के घर पर छिटकती चांदनी सी चंद किरणें
दूसरे को अग्नि देते दीप जब भी जल पिघलते
हो नहीं पातीं सभी की एक जैसी मान्यताएं
रोयें हम या मुस्कुराएँ
कल्पना की जब उड़ानें बाँधती पूर्वाग्रही पर
तो सहज विस्तार उनका एक मुट्ठी में सिमटता
दृष्टि के ही कोण पर निर्भर रहा है दृश्य सारे
कौन उसको किस तरह से देखता है या समझता
कौन से आकाश में हम पंख अपने फ़डफ़डाये
रोयें हम या मुस्कुरायें
शब्दकोशों में नहीं सीमित रहा है ज्ञान केवल
माँगता है चेतना की सार्थकतायें निरन्तर
जो विनय सिखला नहीं सकती हुई विद्या निरर्थक
प्राण में पाषाण में करता यही बस एक अन्तर
शोर में इक भीड़ के सारंगियाँ कब तक बजायें
रोयें हम या मुस्कुरायें
3 comments:
Bahut hee sunder aur saarthak!
आज जियें, ले आस जियें,
कल था, कल हो, क्या जाने?
रोयें हम या मुस्कुरायें..
विजया दशमी की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ- समीर लाल ’समीर’
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