गीत के फूल जो पाँव में आ गिरे


मैं प्रतीक्षा लिए अनवरत हूँ खडा 
पंथ के इक अजाने उसी मोड पर 
तुम गए थे हवाओं की उंगली पकड 
एक दिन जिस जगह पर मुझे छोड कर 
 
आस का दीप हर दिन जला फिर बुझा 
वर्त्तिका की मगर मांग सूनी रही 
आतुरा दृष्टि की भटकनें थरथरा
वक्त के साथ चल होती दूनी रही 
अटकलों के विहग मन के आकाश पर 
हर घड़ी पंख थे फ़डफ़डाते रहे 
मेघ के साथ सन्देश भेजे हुए 
धुप के साथ में लौट आते रहे 
 
जानता चाहते लौटना तुम इधर 
किन्तु संभव नहीं व्यूह कोई तोड़कर 
 
कल्पना के बनाता रहा चित्र, निज 
कैनवस पर दिवस रोज आता हुआ 
सांझ ढलते हुए, तीर बन कर चुभा 
रंग उनमें निराशा का भरता हुआ 
चांदनी रात की रश्मियाँ,बिजलीयाँ
बन के अंगनाई पे मन की गिरती रहीं 
सांवली बदलियाँ नैन के व्योम में 
मौसमों के बिना आके तिरती रहीं 
 
यह गणित आया मेरी समझ में नहीं 
कर, घटा भाग देखा गुणा जोड  कर 
 
प्यार मदिराई गति के पगों की तरह
डगमगाते हुए साथ चलता रहा 
वक्त दरजी बना, भावना के फ़टे
वस्त्र सींते  हुए नित्य छलता रहा 
देव की मूर्तियों से रहे दूर तुम
कक्ष में कैद हो मंदिरों में घिरे 
एक भी तुमने बढ कर उठाया नहीं
 गीत के फूल जो पाँव में आ गिरे 
 
भाग्य की छाँव भी स्पर्श हो न सकी
मुझसे आगे निकलता रहा होड कर 
 

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

लगा समय अब छल करने को,
बोला था सब हल करने को।

nimish said...

सुंदर

Anonymous said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति! हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} की पहली चर्चा हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती -- हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल चर्चा : अंक-001 में आपका सह्य दिल से स्वागत करता है। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर .... Lalit Chahar

Udan Tashtari said...

मेघ के साथ सन्देश भेजे हुए
धुप के साथ में लौट आते रहे

-बहुत सुंदर!!

मुकेश कुमार सिन्हा said...

khubsurat......

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