रंग भरने से इनकार दिन कर गया

एक भ्रम में बिताते रहे ज़िंदगी
यह न चाहा कभी खुद को पहचानते 
 
मन के आकाश पर भोर से सांझ तक 
कल्पनाएँ नए चित्र रचती रहीं 
तूलिका की सहज थिरकनें थाम कर
कुछ अपेक्षाएं भी साथ बनती रहीं 
रंग भरने से इनकार दिन कर गया
सांझ के साथ धुंधली हुई रेख भी 
और मुरझा के झरती अपेक्षाओं को 
रात सीढी  उतरते रही देखती 
 
हम में निर्णय की क्षमताएं तो थी नहीं 
पर कसौटी स्वयं को रहे मानते 
 
चाहते हैं करें आकलन सत्य का 
बिम्ब दर्पण बने हम दिखाते रहें 
अपने पूर्वाग्रहों  से न होवें ग्रसित 
जो है जैसा  उसे वह बताते रहें 
किन्तु दीवार अपना अहम् बन गया 
जिसके साए में थी दृष्टि  धुंधला गई 
ज्ञान  के गर्व की एक मोटी परत 
निर्णयों पर गिरी धुल सी छा  गई 
 
स्वत्व अपना स्वयं हमने झुठला दिया
ओढ कर इक मुलम्मा चले शान से 
 
जब भी चाहा धरातल पे आयें उतर 
और फिर सत्य का आ  करें  सामना 
तर्क की नीतियों को चढा ताक पर 
कोशिशें कर करें खुद का पहचानना 
पर मुखौटे हमारे चढाये हुए
चाह कर भी न हमसे अलग हो सके 
अपनी जिद पाँव अंगद का बन के जमी 
ये ना संभव हुआ सूत भर हिल सके 
 
ढूँढते रात दिन कब वह आये घड़ी 
मुक्त हो पायें जब अपने अभिमान से 

3 comments:

Udan Tashtari said...

गज़ब!!

प्रवीण पाण्डेय said...

एक साँचे सी राह सजी है,
खड़े बद्ध हम खिंचे जा रहे।

Madan Mohan Saxena said...

बहुत सुंदर !कलात्मक ! शुभकामनायें !
कभी यहाँ भी पधारें
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