तुम्हारे तन की गंध चूम आई है

बहकी हुई हवा से पूछा मैंने भेद लडखडाहट का 
तो बोली वह मीत ! तुम्हारे तन की गंध चूम आई है 
 
पुष्पवाटिका से अमराई तक की गलियाँ घूम घूम कर 
क्यारी क्यारी में मुस्काती कलियों का मुख चूम चूम कर 
बहती हुई नदी की धाराओं से बतियाते बतियाते 
संदल की शाखों  पर करते नृत्य मगन मन झूम झूम कर 
 
डलिया भर भर कर बिखेरते मग्न ह्रदय की मुदित उमंगें 
फगुनाहट की रंगबिरंगी चुनरिया फिर लहराई है 
 
धुआँ  अगरबत्ती का लेकर मंदिर की चौखट से आई 
फिर समेट लाई बांहों में गुलमोहर वाली अँगडाई 
पांखुर पांखुर से गुलाब की कचनारों की पी सुवास को 
लगी देखने अपनी छाया में फिर अपनी ही परछाईं 
 
परछाईं के नयनों में भी बिम्ब तुम्हारा ही देखा तो
 सम्मोहित हो रुकी लगा ज्यों सुधि बुधि  पूरी बिसराई है  
 
देहरी  पर आ छाप अधर की लगी छोडने वो मुस्काकर 
कमरे की दीवारें चूमी अपनी चुनरिया लहराकर 
झोंकों के गलहारों मॆं की बंद  कल्पनाॐ की छाया 
मंजरियों की जल तरंग पर अपनी पैंजनिया खनका कर  
 
अमराई में गाती कोयल के स्वर को आधार बना कर 
सारंगी से नए सुरों में,नई  रागिनी बजवाई  है 

3 comments:

सञ्जय झा said...

ati sundar rachna.......


pranam.

ANULATA RAJ NAIR said...

वाह...
बहुत सुन्दर!!

सादर
अनु

प्रवीण पाण्डेय said...

मद में झूमें सारा समतल,
लहर उठी स्मृति उनकी।

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