गीतों में खुद ढल जाते हैं

 
द्वार अंगनाईयों के खुले ही रहे
स्वप्न लाई नहीं नैन की पालकी
मौन होकर प्रतीक्षित हवायें रहीं
होंगी अनुगामिनी आपकी चाल की
आपके कुन्तलों की बँधें डोर से
आस लेकर  घटायें खड़ीं रह गईं
चांदनी थी बुलाती रही चाद को
रोशनी जो बना आपके भाल की
 
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द्वार वातायनों के नहीं खोलते, जितने प्रासाद हैं कल्पना की गली
खटखटाते हुए दॄष्टि की रश्मियाँ थक गईं, उंगलियां आज फिर से जलीं
मौन, आवाज़ पीता रहा हर उठीअंश अनुगूँज के शेष दिख न सके
फिर बिखरती हुई आस को बीनती , एक संध्या निराशा में डूबी  ढली
 
 
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परिवर्तन के  आवाहन में उलझे हुए सांझ के दीपक
जब रजनी की चूनरिया में तारे बन कर जड़ जाते हैं
रजनीगंधा के पत्रों से फ़िसले अक्षर तब आ आकर 
 मेरे होठों को छू  छूकर गीतों में  खुद ढल जाते हैं
 
भावों के बिन शब्द तड़पते जल से निकली मीनों जैसे
धुन्धलाये आईनों में रह रह प्रतिबिम्ब निहारा करते
सूखी हुई पांखुरी को करके हाथों   में कोई प्याला  
अभिव्यक्ति के दरवाज़े पर दस्तक एक लगाया करते
 
मैने अपनी गलियों में आ भटके  उन को गले लगाया
झिड़की खा खार कर आंखों के जिनके ससपने  जल जाते हैं
 
कट जाते जो नाम सफ़लता की सूची से अनायास ही
उनके अर्थ न बदला करती बदले हुए समय की करवट
नियति बादलों की कर बन्दी रखते सदा हवा के झोंके
किस द्वारे से नजर बचायें और कहाँ ढुलकायें मधुघट
 
मैं उन निचुड़े हुए बादलों में बोता हूँ बीज सावनी
जिन्हें हवा के गर्म थपेड़े आ मरुथल पर झल जाते हैं
 
नही न्यायसंगत करना संदेह सीपियों  की क्षमता पर
बूँद स्वाति की जिन्हें न देती अवसर मोती कोई ढालें
और उठाना सिर्फ़ उंगलियां पारस के अद्भुत कौशल पर
अगर न मिट्टी में से कोई वह रसकंचन ढूँढ़ निकाले
 
मैं कट चुके अपेक्षाओं के उन पल को ले बुनता चादर
जो सपनों के अवशेषों की गर्मी पाकर गल जाते हैं

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

कुछ विचार आते मथ मथकर,
कुछ पैदल कुछ चढ़कर रथ पर।

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...