आईने अपने लिए हर बार नव आकार मांग
और मन यह आईने से नित नया उपकार मांगे
हो नहीं पाई तपस्या एक भी अब तक सुहागन
आस्था से कामना का हो नहीं पाया विभाजन
कल्पना की दूरियों का संकुचित विस्तार पाया
रह गई अभिशप्त होकर आस की दुल्हन अभागन
धड़कनें नित सांस से अपने लिये उपहार माँगे
चाह अपनी तोड़ कर सीमाओं को विस्तार मांगे
झर चुके हैं पात, बैठा शाख पर पाखी अकेला
ताकता धुंधले क्षितिज पर बिम्ब का बिखरा झमेला
शुष्क आहत चिह्न पर उगते विलापों के स्वरों में
ढूँढ़ता है सांत्वना को दे सके वह एक हेला
मौसमों की बदलियों से पीर का उपचार माँगे
सांस अपनी मेहनतों का नित्य ही प्रतिकार मांगे
लौट आये उद्गमों पर वृत्त में चलते हुये पग
फडफडा कर पंख अपने रह गया मन का अथक खग
झाँक कर देखा क्षितिज के अनगिनत वातायनों में
घुल गईं सारी अपेक्षा ह दृश्य दीखे कोई जगमग
घुंघरुओं का मौन फिर अपने लिए झंकार मांगे
कारणों से पीर अपने वास्ते निस्तार मांगे
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2 comments:
अद्भुत भाव, मोहक प्रस्तुतिकरण..
आपके गीत की पंक्तियों की ’आह’ का विह्वल हो व्यवहार और उपाय मांगना गहरे छू गया. इन आप्त पंक्तियों के लिए आपका सादर धन्यवाद, आदरणीय राकेशजी.
शुभ-शुभ
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