दीपकों से दीप की शिखायें मोड़ मुंह गईं
इस तरह से रश्मियां तिमिर की आन छू गईं
व्योम में रुकी रही थी खिलखिला के चांदनी
तारकों की पंथ में हुई तमाम रहजनी
दिशाओं के भरे कलश सजे थे जितने रीत कर
झनझनाते रह गये थे पनघटोम की भीत पर
सीढ़ियों के ही तले से राह नित्य चल पडी
मुंह छुपाये रह गयी थी हाथ में बंधी घड़ी
बंद पुस्तकों के पृष्ठ खोल रोज देखते
अबूझे प्रश्न के जवाब शून्य में ही खोजते
उम्र बर्फ के डेल सी घुल गई हवाओं में
रश्मियों को रह गए हैं कांच में ही देखते
खिड़्कियों पे जा टिकी रही थी दृष्टि अनमनी
पाहुनों की पंथ से सुलझ न पाई अनबनी
जाल यूं बिछा रहा समय का था बहेलिया
रह गईं थी रिक्त फ़िर से फ़ैल कर हथेलियाँ
द्वार आगतों के दीप थाल में रखे रहे
तीलियां विमुख हुईं थीं अनजले सभी रहे
कुमकुमों ने कुंकुमों के रंग सारे पी लिये
ले गये विदाई दिन ये बोल के कि जी लिये
इक झुकी हुई कमर लिए थे प्रश्न चिह्न जो
उत्तरों में अर्थ उनका खोजते थे भिन्न हो
मंडियां उजाड़ कोई कुछ नहीं खरीदता
रह गए थे हम जबाब भोर सांझ बेचते
यामिनी ने जो लिखे थे पत्र नाम भोर के
सांझ की उदासियों के चक्रव्यूह तोड़ के
तारकों के अंश को पिरो पिरो के शब्द में
नभ सरित की गंध घोल भावना के वक्ष में
पत्र वे सभी घिरी घटाएं ले गईं चुरा
और जो पता रहा हवाओं ने लिया उड़ा
जुड़ न पाई शब्द से अधर ने जो भी बात की
धुंध में विलीन हो रही थी रेख हाथ की
सामने वितान पर न चित्र कोई बन सका
प्रकाश नभ के छिद्र से न अंश मात्र छन सका
बोझ सांस का चढ़ाए लाठियों पे चल रहे
कदम बढाते एक पर पचास बार टेकते
3 comments:
कई भाव साथ-साथ चलते हैं. आपकी काव्य प्रतिभा सदा विस्मित करती रही है. इस प्रविष्टि में भी आपने बिम्बों का बेहतर प्रयोग किया है.
इन पंक्तियों के लिए सादर बधाइयाँ -
यामिनी ने जो लिखे थे पत्र नाम भोर के
सांझ की उदासियों के चक्रव्यूह तोड़ के
तारकों के अंश को पिरो पिरो के शब्द में
नभ सरित की गंध घोल भावना के वक्ष में
पत्र वे सभी घिरी घटाएं ले गईं चुरा
और जो पता रहा हवाओं ने लिया उड़ा
जुड़ न पाई शब्द से अधर ने जो भी बात की
धुंध में विलीन हो रही थी रेख हाथ की
यह आपके ब्लॉग-पोस्ट पर मेरा पहली टिप्पणी है.
सादर
जबरदस्त!!
पूरी ऊर्जा से मन में उतरती पंक्तियाँ..
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