फिर तुम्हारे पांव चूमें पनघटों के पंथ को जा
मैं कलश के रिक्त होने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ
चाहती है दृष्टि जाकर के रुके उस ईंडुरी पर
जो तुम्हारे शीश पर की ओढ़नी को चूमती है
और वेणी जो लपेटे पुष्पहारों की कतारें
पंथ पर चलते हुये कटि पर निरंतर झूमती है
पायलों की रुनझुनों में कंगनों की खनखनाहट
सरगमी सम्मिश्रणों की मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ
चाहना है गर्व जितना गागरी को शीष चढ़कर
हो जरा उतना तुम्हारा स्पर्श पा भुजपाश को भी
गंधसिक्ता कलसियों की रसभरी अनुभूतियों का
अंश थोड़ा सा मिले जो आतुरा है सांस को भी
फिर तुम्हारी कनखियों के कोण दर्पण से विमुख हों
पूर्ण मैं श्रंगार होने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ
देह की गोदावरी में उठ रहीं चंचल तरंगें
उंगलियों के पोर को कर तीर जिस पल छेड़ती हैं
तब हवा की धारियों में हो रही आलोड़ना में
सावनी मल्हार सरगम के नये स्वर टेरती हैं
चंग की इक थाप पर फ़गुनाहटों को मैं सजाकर
अब चिकुर के मेघ बनने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ
1 comment:
बहुत ही सुन्दर कविता..प्रतीक्षायें फलीभूत हों..
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