फूल बनें कुछ और सुगन्धी

जो आंखों ने देख रखे हैं
और कल्पना में जो बन्दी
 
उन सारे सपनों के खिल कर फूल बनें कुछ और सुगन्धी
 
निश्चय के सांचे में ढल कर
शिल्पित हो हर एक अपेक्षित
जो भी चाह उगाओ मन में
नहीं एक भी हो प्रतिबन्धित
तुम नभ की ऊँचाई छूते
ऐसे जगमग बनो सितारे
पाने को सामीप्य सदा ही
स्वयं गगन भी हो आकर्षित
 
और हो सके स्पर्श तुम्हारा पाकर नभ भी कुछ मकरन्दी
 
अभिलाषाओं की सँवरे आ
झोली सजने की अभिलाषा
और तुम्हारे द्वारे आकर
सावन रहे सदा ठहरा सा
बरखा के मोती सजते हों
वन्दनवार बने चौखट पर
बून्द ओस की आंजे अपनी
आंखों में देहरी की आशा
 
और गली में छटा बिखेरे संध्या भोर सदा नौचन्दी

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर रचना..

Archana Chaoji said...

बहुत सुन्दर गीत ...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बहुत ही कोमल भावों से सजी यह रचना..

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